
ब्रिटेन ने क्यों लगा दिया टीपू सुल्तान की बंदूक को एक्सपोर्ट करने पर बैन? जानिए इसका ऐतिहासिक महत्व
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टीपू सुल्तान की तलवार के बाद अब उनकी एक बंदूक चर्चा में है. दरअसल इस बंदूक के एक्सपोर्ट पर ब्रिटेन ने बैन लगा दिया है. इस बंदूर की कीमत 20 करोड़ रुपये आंकी जा रही है. उनकी तलवार 143 करोड़ रुपये में नीलाम हुई है.
ब्रिटेन में मैसूर के शासक टीपू सुल्तान के लिए 18वीं शताब्दी में भारत में बनाई गई एक दुर्लभ बंदूक के निर्यात पर रोक लगा दी गई है. 'एक्सपोर्ट ऑफ वर्क्स ऑफ आर्ट एंड आब्जेक्ट्स आफ कल्चरल इंटरेस्ट' की समीक्षा समिति (आरसीईडब्ल्यूए) के सुझाव पर ब्रिटेन के कला एवं विरासत मंत्री लार्ड स्टीफन पार्किंगसन ने‘फ्लिंटलॉक स्पोर्टिंग गन’ के निर्यात पर पिछले हफ्ते रोक लगाने का फैसला लिया था.
यह फैसला पिछले दिनों टीपू सुल्तान की तलवार की नीलामी के बाद आया है. उसकी तलवार 1.4 करोड़ पाउंड यानी करीब 143 करोड़ रुपये में बिकी थी. यह तलवार टीपू सुल्तान के निजी कमरे से मिली थी. इस तलवार को ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना ने मेजर जनरल डेविड बेयर्ड को पेश की गई थी. नीलामी का आयोजन करने वाले बोनहम्स के मुताबिक टीपू सुल्तान की तलवार नीलामी में अब तक की सबसे महंगी बिकने वाली भारतीय वस्तु है.
अब टीपू सुल्तान की बंदूक के एक्सपोर्ट पर रोक लगा दी गई है. बताया जा रहा है कि ब्रिटेन की एक संस्थान को इसे हासिल करने का समय देने के लिए यह कदम उठाया गया है. संस्थान भारत-ब्रिटेन इतिहास में 'तनावपूर्ण अवधि' का अध्ययन कर रहा है. इस बंदूक की कीमत 20 लाख पाउंड यानी 20.42 करोड़ रुपये आंकी गई है.
जानकारी के मुताबिक 14-बोर की यह बंदूक 1793 से 1794 के बीच बनाई गई थी. इसे पक्षियों का शिकार करने के लिए बनाया गया था. इसे असद खान मुहम्मद ने बनाया था, जिस पर उनके हस्ताक्षर भी हैं.
ब्रिटिश औपनिवेशिक काल की इस बंदूक के बारे में कहा जाता है कि इसे टीपू सुल्तान के साथ युद्ध लड़ चुके जनरल 'अर्ल कार्नवालिस' को भेंट किया गया था. लॉर्ड पार्किंगसन ने कहा, 'यह बंदू अपने आप में अनोखी है. ब्रिटेन और भारत के बीच के अहम इतिहास का उदाहरण भी है.'
टीपू सुल्तान एंग्लो-मैसूर युद्ध में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और उसके सहयोगियों के धुर विरोधी थे. टीपू सुल्तान श्रीरंगपट्टनम के अपने गढ़ की रक्षा करते हुए चार मई, 1799 को मारे गए थे. उनकी मौत के बाद उनके उत्कृष्ट निजी हथियार युद्ध में शामिल ब्रिटिश सेना के तत्कालीन शीर्ष अधिकारियों को सौंप दिए गए थे.

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