
संजय गांधी के नक्शे-कदम पर राहुल गांधी? वाजपेयी की समाधि पर जाने के क्या मायने
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कांग्रेस नेता राहुल गांधी के नेतृत्व में भारत जोड़ो यात्रा दिल्ली आ गई है. इस दौरान राहुल गांधी ने सोमवार को अटल बिहारी वाजपेयी के समाधि स्थल पर जाकर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की. उनके इस कदम के पीछे की असली राजनीतिक मंशा पर विपक्ष की ओर से पैनी नजर रखी जा रही है. लेकिन राहुल के मन में वाजपेयी को लेकर सर्वोच्च सम्मान रहा है. निजी बातचीत में राहुल अक्सर इस बात पर मलाल करते थे कि उन्हें वाजपेयी से बातचीत करने और सीखने का ज्यादा मौका नहीं मिला.
राजनेताओं को लेकर किसी तरह की भविष्यवाणी करना आसान नहीं है, क्योंकि राजनेता अक्सर ऐसे कदम उठाते हैं, जिनके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है. लिहाजा कांग्रेस नेता राहुल गांधी भी अपवाद नहीं हैं. दरअसल, राहुल गांधी ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के समाधि स्थल पर पहुंचकर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की है. उनका ये कदम वास्तविक राजनीति और भारत रत्न के अटल बिहारी वाजपेयी की उदारवादी, समावेशी राजनीति का मिश्रण भी है.
बड़ा सवाल ये भी है कि क्या राहुल गांधी अपने चाचा संजय गांधी के उस कदम से सीख ले रहे हैं, जिसने 1979 में मोरारजी देसाई की सरकार को गिरा दिया था और 1980 में इंदिरा गांधी की प्रधानमंत्री के रूप में वापसी का मार्ग प्रशस्त किया था. जून 1979 में ब्रिगेडियर कपिल मोहन और संजय गांधी के एक करीबी दोस्त ने राजनारायण को नई दिल्ली स्थित आवास पर आमंत्रित किया था, जो उस समय चौधरी चरण सिंह के करीबी और विश्वासपात्र थे. इस दौरान संजय गांधी की उपस्थिति में लजीज लहसुन के पकौड़े, मशरूम के पकौड़े और चाय की चुस्कियों का दौर चला था. इस बातचीत का परिणाम जो हुआ, वह इतिहास के पन्नों में दर्ज है.
इस मीटिंग के बाद चौधरी चरण सिंह ने मोरारजी देसाई सरकार से जनसंघ-आरएसएस के सदस्यों को हटाने के लिए दोहरी सदस्यता का हौवा खड़ा कर दिया. लिहाजा खूब राजनीतिक उथल-पुथल मची. कांग्रेस के बाहरी समर्थन से किसान नेता चौधरी चरण सिंह को प्रधानमंत्री के रूप में शपथ दिलाई गई.
उन दिनों एक नारा भी चर्चा का केंद्र था, जिसे भारतीय लोकदल और कांग्रेस के कार्यकर्ताओं लगाते थे. "चरण सिंह लाए ऐसी आंधी, देश की नेता इंदिरा गांधी.'' हालांकि ये भी लंबे समय तक नहीं चलने वाला था. लिहाजा इंदिरा गांधी और संजय गांधी ने चौधरी चरण सिंह की सरकार से समर्थन वापस ले लिया. परिणामस्वरूप सरकार गिर गई. इतना ही नहीं, चौधरी चरण सिंह के नाम ये रिकॉर्ड भी दर्ज हुआ कि वह ऐसे प्रधानमंत्री रहे जिन्होंने कभी संसद की सीढ़ियां नहीं चढ़ीं. इससे पहले ही उन्हें पद से इस्तीफा देना पड़ गया था.
2024 के चुनाव परिणाम होंगे निर्णायक
वर्तमान राजनीति के संदर्भ में 1979 की स्थिति की प्रासंगिकता बहुत कम है, लेकिन कांग्रेस का एक वर्ग वाजपेयी की भाजपा और वर्तमान बीजेपी के बीच अंतर करने का कोई मौका नहीं छोड़ता है. अब सवाल ये है कि 2024 में होने वाले आगामी लोकसभा चुनाव में क्या कांग्रेस बीजेपी के एक वर्ग को दूसरे के खिलाफ खड़ा कर सकती है. जैसे मोरारजी देसाई की सरकार को उनके ही खेमे के मंत्री रहे चौधरी चरण सिंह ने उखाड़ फेंका था. हालांकि ये विचार किसी उपहास के जैसा ही प्रतीत होता है, लेकिन तर्क ये भी दिया जा सकता है कि राजनीति अवसरों का खेल है. जो कभी दिखाई नहीं देते, लेकिन मौके पर भुना लिए जाते हैं. खैर, ये कहना अभी जल्दबाजी होगी, क्योंकि ये बहुत हद तक इस पर निर्भर करेगा कि 18वीं लोकसभा चुनाव के परिणाम कैसे आते हैं. ऊंट किस करवट बैठता है. किसी भी पार्टी या गठबंधन के लिए स्पष्ट बहुमत से कम या 250 से कम सीटों पर बने रहना मुश्किल खड़ी कर सकता है.

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