1971 की जंग के बाद पाकिस्तानी युद्धबंदियों ने भारतीय जेलों में कैसे बिताए अपने दिन?
BBC
कैंप में नमाज़ का नेतृत्व जनरल अंसारी किया करते थे. पाकिस्तानी अधिकारियों को जिनीवा कन्वेंशन के नियमों के तहत 140 रुपए प्रति माह की तन्ख्वाह दी जाती थी, जिनसे वो किताबें, लिखने के काग़ज़ और रोज़मर्रा की चीज़ें ख़रीदा करते थे.
16 दिसंबर, 1971 को हथियार डालने के चार दिन बाद जनरल नियाज़ी और उनके वरिष्ठ सहयोगियों मेजर जनरल राव फ़रमान अली, एडमिरल शरीफ़, एयर कोमोडोर इनामुल हक़ और ब्रिगेडियर बाक़िर सिद्दीक़ी को कोरिबू विमान से कोलकाता ले जाया गया.
नियाज़ी अपने पीआरओ सिद्दीक़ सालिक को ढाका में नहीं छोड़ना चाहते थे इसलिए उन्हें भी फ़रमान अली का नकली एडीसी बनाकर कोलकाता ले जाया गया. जनरल सगत सिंह इन लोगों को ढाका हवाईअड्डे पर छोड़ने आए. उन्हें फ़ोर्ट विलियम के लिविंग क्वार्टर्स में रखा गया.
जनरल जैकब ने सरेंडर दस्तावेज़ को दोबारा टाइप करवाया क्योंकि मूल दस्तावेज़ में सरेंडर का समय ग़लत बताया गया था. नियाज़ी और जनरल अरोड़ा ने उस पर दोबारा दस्तख़त किए. शुरू के दिनों में जनरल जैकब ने नियाज़ी और उनके सहयोगियों से गहन पूछताछ की.
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जनरल एएके नियाज़ी अपनी आत्मकथा 'द बिटरेयल ऑफ़ ईस्ट पाकिस्तान' में लिखते हैं, "हमें एक तीन मंज़िली इमारत में रखा गया जो नई-नई बनी थी. वो साफ़-सुथरी जगह थी. हमने एक कमरे को खाने का कमरा बना दिया. हमारा खाना भारतीय रसोइए बनाते थे लेकिन उन्हें हमारे अर्दली हमें परोसते थे. हम अपना समय रेडियो सुनने, किताबें पढ़ने और कसरत करने में बिताते थे."