
आखिर कैसे बनती हैं महिलाएं नागा साध्वी? जानें उनकी जिंदगी से जुड़े दिलचस्प रहस्य
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इस बार महाकुंभ में नागा पुरुषों के साथ महिलाओं का भी दीक्षा संस्कार हो रहा है. आपने पुरुष नागा साधुओं के बारे में तो खूब सुना होगा लेकिन महिला नागा साधु के बारे में कम ही सुनने को मिलता है. तो आइए जानते हैं कि महिला नागा साधु कौन होती हैं और कैसे बनती हैं और इन्हें साध्वी बनने के लिए किन कठिन परिक्षाओं से गुजरना पड़ता है.
प्रयागराज में महाकुंभ की शुरुआत हो चुकी है. जिस तरह से नागा साधु आर्कषण का केंद्र बने हुए हैं ठीक उसी तरह इस बार महाकुंभ में नागा साध्वी भी आकर्षण का केंद्र बनी हुई हैं. दरअसल, इस बार महाकुंभ में नागा पुरुषों के साथ महिलाओं का भी दीक्षा संस्कार हो रहा है. आपने पुरुष नागा साधुओं के बारे में तो खूब सुना होगा लेकिन महिला नागा साधु के बारे में कम ही सुनने को मिलता है. तो चलिए लेखक धनंजय चोपड़ा की किताब 'भारत में कुंभ' से जानते हैं कि महिला नागा साधु कौन होती हैं और कैसे बनती हैं और इन्हें साध्वी बनने के लिए किन कठिन परिक्षाओं से गुजरना पड़ता है.
कौन होती हैं महिलाएं नागा साधु
महिला नागा साधु 'नागिन', 'अवधूतनी,' 'माई' कहलाती हैं और वस्त्रधारी होती हैं. सर्वाधिक 'माई' जूना अखाड़ा में हैं, जहां इनकी संख्या हजारों में है. अन्य अखाड़ों में भी महिला साधु हैं, लेकिन इनकी संख्या कम है. जूना अखाड़ा ने सन् 2013 को माई बाड़ा को दशनामी संन्यासियों के अखाड़े का स्वरूप प्रदान कर दिया. इनका शिविर जूना अखाड़े शिविर के ठीक बगल में लगाया जाता है. 'माई' या 'अवधूतनियों' को अखाड़े में 'श्रीमहंत' का पद दिया जाता है. 'श्रीमहंत' के पद पर चुनी गई महिला साधु शाही स्नान के दिन पालकी में चलती हैं और उन्हें अखाड़े का ध्वज, डंका और दाना लगाने की अनुमति होती है.
कैसे बनती हैं महिलाएं नागा साधु
महिलाओं के नागा संन्यासी बनने की भी एक कठिन प्रक्रिया है. प्रयागराज कुंभ के दौरान माई बाड़ा की ही एक संन्यासिनी ने बताया कि नागा संन्यासी बनने का निर्णय लेने वाली महिला के घर-परिवार और सांसारिक जीवन की गहन जांच-पड़ताल होती है. महिला को यह प्रमाणित करना होता है कि उसे मोह-माया से अब कोई लगाव नहीं है और वह ब्रह्मचर्य का पालन करने का संकल्प ले चुकी है. यह सिद्ध करने में दस से बारह वर्ष का समय भी लग जाता है. जब अखाड़े के गुरु को इन सब बातों पर विश्वास हो जाता है, तभी वे उसे दीक्षा देने के लिए तैयार होते हैं. दीक्षा प्राप्त करने के बाद महिला संन्यासी को सांसारिक वस्त्र त्याग कर अखाड़े से मिले एक पीले वस्त्र से संन्यासिनों की तरह अपने तन को ढकना होता है.
इसके उपरांत मुंडन, पिंडदान और नदी स्नान का क्रम चलता है. इस पंच संस्कार में इन्हें गुरु की ओर से पहले भभूत, वस्त्र और कंठी प्रदान की जाती है. पिंडदान के बाद उन्हें दंड-कमंडल प्रदान किया जाता है. इसके बाद महिला नागा संन्यासिन पूरा दिन जप करती हैं. सुबह ब्रह्ममुहूर्त में शिव जी का जप और उसके बाद अखाड़े के इष्टदेव की पूजा करती हैं. इसके बाद अखाड़े में उसे नागा संन्यासिन मान लिया जाता है और ‘माता' की पदवी देकर उसका सम्मान किया जाता है.

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