कहानी कोटा कीः जहां बच्चे वो मशीन हैं जिसमें जरा सी डिफेक्ट दिखा नहीं कि माल वापस!
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जब हम दिल्ली लौटकर रिपोर्ट पर काम कर रहे थे, तभी कोटा से एक और खुदकुशी की खबर आती है. छात्र दो महीने पहले ही IIT की तैयारी के लिए यहां आया था. इसी साल मई-जून में 9 बच्चों ने सुसाइड कर लिया. अब जुलाई का महीना भी बेदाग नहीं रहा. देश को डॉक्टर-इंजीनियर देने वाले शहर में ऐसा क्या है, जो बच्चे यहां तक पहुंच जाते हैं. एक पड़ताल.
फाइव-स्टार होटल को पीछे छोड़ते हॉस्टल का लाउंज. लंबा-चौड़ा रिसेप्शन. बड़े-बड़े झूमर और बैठने के लिए आला दर्जे की टेबल-कुर्सियां. वहां के मालिक मुझे सारे बंदोबस्त दिखाते हैं. सीसीटीवी. बायोमैट्रिक. इमारत के हर कोने में मजबूत जालियों का घेरा. पूछने पर गर्व से कहते हैं- अजी, हमने पूरा खयाल रखा. बच्चे जान देना चाहें तो वहीं पकड़े जाएंगे.
ये कोटा है. यहां किराए पर कमरे ही नहीं, किराए पर ख्वाब भी मिलते हैं. डॉक्टर-इंजीनियर बनाने का ख्वाब. इन सपनों को पूरा करने का वादा लिए कोचिंग इंस्टीट्यूट चलते हैं. उनके साथ ही चलता है, एक पूरा कारोबार.
15-16 साल के बच्चे को कैसे जिंदा मशीन में बदल दिया जाए. सबकुछ बेरोक-टोक चलता रहता है, जब तक कोई मशीन धड़कना बंद नहीं कर देती.
बीते दो महीनों में 9 बच्चों ने खुदकुशी कर ली. कोई छत से कूदा. कोई पंखे से लटका. किसी ने सुसाइड नोट लिखा. कोई चुपचाप चला गया. कुछ दिन उसका कमरा बंद रहा. फिर धो-पोंछकर किसी नए बच्चे को दे दिया गया. हर कोई मिलकर मौत की गंध मिटाने में लगा हुआ है.
एक बड़े अधिकारी नाम छिपाने की शर्त पर कहते हैं- शहर बारूद के ढेर पर बसा है. एक चिंगारी और सारी चमक-दमक राख हो जाएगी. इमारतें डिब्बा बन जाएंगी. मुर्दा बचपन की कीमत पर जिंदा है ये शहर.
दिल्ली से करीब 5 सौ किलोमीटर दूर कोटा के लिए निकली तो थोड़ा-बहुत होमवर्क किया हुआ था. कुछ नंबर थे, जिनपर कॉल किया जाना था. कुछ लोग थे, जिनसे मिलना था. लेकिन रेलवे स्टेशन से बाहर आते ही होमवर्क धरा का धरा रह गया. अब अपनी कहानी का मैं खुद एक कैरेक्टर थी.
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