
Crime Katha: बेलछी से मियांपुर तक...उन 23 साल की कहानी जब बिहार की धरती बनी रही बदलापुर!
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बिहार की राजनीति के बीच कभी खून और बदले का ऐसा दौर चला था, जब बेलछी, बथानी टोला, लक्ष्मणपुर बाथे, सेनारी और मियांपुर जैसे नरसंहारों ने सूबे को दहला दिया था. रणवीर सेना और MCC के बीच चले इस खूनी संघर्ष ने बिहार को दो दशकों तक हिंसा की आग में झोंक दिया था. ‘बिहार की क्राइम कथा’ में पढ़िए बदले की आग में जलते दो दशकों की कहानी.
Crime Katha Bihar Special: बिहार में विधानसभा चुनाव का ऐलान हो चुका है. चुनावी मैदान में सत्ता और विपक्ष एक दूसरे के सामने अपनी ताकत दिखाने के लिए किसी योद्धा की तरह तैयार हैं. एक दौर था जब बिहार ऐसा नहीं था. वहां आतंक का राज दिखता था. विधान सभा चुनाव के मद्देनजर हम आपके लिए लेकर आए हैं बिहार से निकली जुर्म की वो कहानियां, जो आज भी दिल दहला देती हैं. 'बिहार की क्राइम कथा' सीरिज के तहत आपके लिए पेश है, सूबे में सामूहिक हत्याकांड की वो कहानी, जिसने करीब दो दशक से ज्यादा वक्त तक बिहार को दहला कर रखा.
70 का दशक खत्म होने को था. बिहार की धरती जैसे किसी अघोषित युद्धभूमि में बदल गई थी. खेतों की मिट्टी में खून मिल चुका था, और फिजा में घुली थी बदले की हवा. एक तरफ माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (MCC) के लोग हथियार उठाए बैठे थे, जो गरीबों, दलितों और भूमिहीनों की आवाज बन चुके थे. दूसरी तरफ थे ऊंची जाति के जमींदार, जिनका खेतों और सत्ता पर कई पीढ़ियों से कब्ज़ा था. वे माओवादियों की बगावत को अपने ‘राज’ पर हमला मानते थे. यही वजह है कि उस दौर में बिहार कई इलाकों का नाम सुनते ही कोई न कोई सामूहिक हत्याकांड याद आ जाता था.
बारा, बथानी टोला, लक्ष्मणपुर बाथे, सेनारी, मियांपुर... हर घटना जैसे एक-दूसरे का जवाब थीं. बदला थी. यह जवाब कभी अदालतों में नहीं, रात के अंधेरे में गोलियों से दिया जाता था और बिहार की जमीन जहां तहां खून से लाल हो जाती थी.
साल 1977 - बेलछी से भड़की थी चिंगारी देश की राजनीति में वो इंदिरा गांधी का दौर था. बिहार की राजधानी पटना से करीब 60 किलोमीटर दूर एक छोटा-सा गांव था बेलछी. जहां 17 मई 1977 की रात गांव में कयामत उतर आई थी. पूरा गांव जब गहरी नींद में सो रहा था, तभी कुछ दबंग लोग हथियारों के साथ उस गांव में दाखिल हो गए. उन्होंने चुन चुनकर कुछ घरों में दस्तक दी और लोगों को बाहर खींच लिया. चीख पुकार मच गई. गांव के लोग कुछ समझ नहीं पा रहे थे. सही कहें तो उन्हें समझने का वक्त भी नहीं मिला. हमलावरों ने गांव के 11 दलित मजदूरों को ज़िंदा आग के हवाले कर दिया. आधी रात में वहां कोहराम मच गया. जिंदा जलते लोगों की आह सन्नाटे को चीर रही थी. औरतों और बच्चों के रोने और चीखने की आवाज़े माहौल में दर्द पैदा कर रही थीं.
मौत की रात गुजर चुकी थी. अगली सुबह गांव में राख हो चुके इंसानों की अधजली लाशें पड़ी थीं. वहां का मंजर इस बात की गवाही दे रहा था कि उस रात गांव में आतंक का नंगा नाच हुआ था. ये सामूहिक हत्याकांड पूरे देश में चर्चा की वजह बन गया. सियासी गलियारों में भी गहमा गहमी कम नहीं थी. तब इंदिरा गांधी खुद मौका-ए-वारदात पर पहुंची थीं. वो वहां जाकर मिट्टी पर बैठीं और देर तक रोती औरतों को सांत्वना देती रहीं. दरअसल, ये सब कुर्मी जमींदारों और दलित खेतिहर मजदूरों के बीच ज़मीनी झगड़े का नतीजा था. यही झगड़ा जातीय नफरत में बदल गया. उस पल से बिहार में जाति बनाम जाति की कहानी शुरू हो गई थी.
साल 1987 - दलेलचक-बघौरा में नक्सली बदले की दस्तक वो 10 जून 1987 की रात थी. बिहार के गया जिले में हालात ये बन चुके थे कि अराजकता बढ़ती जा रही थी. बघौरा गांव में सन्नाटा पसरा था. अचानक उसी सन्नाटे में कहीं से भीड़ की शक्ल में ना जाने तमाम लोग आ धमके. गांव के चारों ओर बंदूकें चमकने लगी थीं. दरअसल, ये सब लोग माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (MCC) के हथियारबंद दस्ते के सदस्य थे. उनका निशाना था बघौरा गांव का राजपूत समुदाय. इसके बाद गांव में खून की होली खेली गई. मंजर खौफनाक था. हमलावरों घरों से निकालकर लोगों को खेत में ले गए. पहले उनके साथ जमकर मारपीट की गई और फिर बेरहमी से काट डाला गया. गोली मारी गई. गांव के मर्द, औरतें और यहां तक कि बच्चे भी. किसी को नहीं बख्शा गया. हमलावरों की वहशत जब थमी तो खेतों की जमीन खून से लाल हो चुकी थी.

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