
Bihar ki Crime Katha: जब त्वरित न्याय की सनक ने भागलपुर पुलिस को बना दिया था आंखफोड़वा!
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1979–80 में बिहार के भागलपुर में अंडर-ट्रायल कैदियों की आंखों में तेजाब डालकर उन्हें अंधा कर देने वाली घटना को ‘आंखफोड़वा कांड’ कहा जाता है. पढ़ें इस वारदात के बाद कानूनी लड़ाई, पीड़ितों की तकलीफ और आज के हालात की पूरी कहानी.
बिहार के भागलपुर जिले में 1979 और 1980 के आसपास एक ऐसा अत्याचार हुआ था, जिसकी जिक्र वहां की सियासत में आज भी हो जाता है. वो था भागलपुर का 'आंखफोड़वा कांड'. इस वारदात के दौरान अपराध को काबू करने की आड़ में पुलिसवालों ने ही 33 अंडर-ट्रायल कैदियों की आंखों में तेजाब (Acid) डालकर उन्हें अंधा कर दिया था. यह वारदात सिर्फ पुलिस की करतूत नहीं, बल्कि मानवाधिकारों का भयानक उल्लंघन थी. जिसने न सिर्फ प्रभावित परिवारों को तोड़ा, बल्कि पूरे न्याय तंत्र और बिहार की छवि पर गहरा दाग लगाया था. ऐसा दाग जो कभी मिट नहीं पाया. उसकी यादें आज भी लोगों को सन्न कर देती हैं. 'बिहार की क्राइम कथा' में पेश है दिल दहला देने वाले भागलपुर के आंखफोड़वा कांड की सिलसिलेवार कहानी.
भागलपुर में अपराध का ताना-बाना 1970-80 के दशक में बिहार में अपराध, सामाजिक तनाव और असुरक्षा की समस्या गहरी थी. ग्रामीण इलाकों में जमीनी विवाद, जातीय संघर्ष और अपराधी गुट सक्रिय थे. भागलपुर भी बिहार का संवेदनशील जिला था, जहां जुर्म की शिकायतें आम थीं. हालात ऐसे थे कि पुलिस दबाव में थी कि अपराध नियंत्रण दिखाएं. उस वक्त की कई रिपोर्ट बताती हैं कि स्थानीय प्रशासन को तेज़ कार्रवाई करने में दिक्कत होती थी. उस समय में दोष सिद्ध होने से पहले की गिरफ्तारी और दण्ड की धारणा प्रबल थी. लेकिन कानूनी प्रक्रिया, न्यायिक समीक्षा और मानवाधिकार सुरक्षा की सीमाएं बेहद कमजोर थीं. इस पृष्ठभूमि में पुलिस की अत्यधिक कार्रवाई को एक अदालती कार्रवाई जैसा दिखाया गया था. इस पृष्ठभूमि ने वह माहौल तैयार किया, जिसमें न्याय की बजाय त्वरित न्याय को प्राथमिकता दी गई.
ऑपरेशन आंखफोड़वा कांड की शुरुआत कुछ दस्तावेजों के अनुसार, अक्टूबर 1979 में भागलपुर पुलिस ने एक गुप्त अभियान शुरू किया, जिसमें अंडर-ट्रायल कैदियों को राउन्डअप किया गया. पुलिस ने उन बंदियों को विभिन्न थानों में लाया गया. किसी को अंदाजा नहीं था कि उनके साथ क्या होने वाला है. उन थानों का माहौल बेहद टाइट था. इसके बाद अचानक पुलिसवाले हवालात में दाखिल हुए और एक एक कर उन अंडर-ट्रायल कैदियों को जमीन पर गिराया और उनके हाथ पैर पकड़ लिए. फिर सूए या कहें कि टकुआ जैसे नुकीले लोहे के पतले हथियार से उनकी आंखों को छेद डाला. थाने में कैदियों की चीख पुकार गूंज रही थी. लेकिन कोई सुनने वाला नहीं था. जुर्म की कहानी यहीं नहीं थमी. इसके बाद उनकी छेदी गई आंखों में तेजाब डाल दिया गया. वे तड़पते रहे. चीखते रहे. लेकिन पुलिसवालों को रहम नहीं आया. उन कैदियों के साथ ऐसी बेरहमी की गई कि सुनने और देखने वालों की रूह कांप गई.
मीडिया रिपोर्टस् के मुताबिक, इस बेरहमी का शिकार बने कुछ गवाहों ने बाद में बयान दिया कि जब प्रक्रिया के दौरान पुलिसकर्मी पूछते थे, क्या आ कुछ देख पा रहे हैं? पीड़ित कहता था कि कुछ नहीं दिखता, तो फिर उसी तरह अगले कैदी पर कार्रवाई कर दी जाती थी. यह सिलसिला लगभग अक्टूबर 1979 से जुलाई 1980 तक लगातार चला. पुलिस की इस करतूत से दहशत का माहौल था. अपराधी भी डरे हुए थे.
पीड़ितों के हालात भागलपुर आंखफोड़वा कांड के दौरान जो लोग अंधे किए गए, उनमें अधिकांश गरीब, दलित या निचली जातियों से थे. कहा जाता है कि उनके सामाजिक हालात ही उन्हें इंसाफ से दूर करते थे. पिछड़ी पृष्ठभूमि और वंचित वर्ग होने से उनके पास कानूनी संसाधन या वकील नहीं थे. ना ही दबाव बनाने वाले ऐसे समूह, जो उन्हें आवाज दे सकें. इस तरह, उन्हें एक अनसुनी त्रासदी के गर्त में फेंक दिया गया. उमेश मंडल, भोला चौधरी, कमला तांती आदि जैसे कुछ नाम इस मामले में हमेशा दर्दनाक कहानी बयां करते आए हैं.
इस मामले में रोचक बात यही है कि अपराध नियंत्रण का नाम देकर पुलिस ने ऐसा अत्याचार किया कि न्याय का मूल सिद्धांत यानी निर्दोष की सुरक्षा को बलपूर्वक टाल दिया गया था. ये सिर्फ इसलिए किया गया कि पीड़ितों के पास संसाधन नहीं थे.

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