
संघ के 100 साल: पहले सरकार्यवाह बालाजी जो बन गए थे कम्युनिस्टों के ‘जॉन स्मिथ’
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वो कद्दावर नेता जिसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपना पहला सरकार्यवाह मानता है, लेकिन इस नेता का ऐसा वैचारिक बदलाव हुआ कि उन्होंने बाद में कम्युनिस्ट पार्टी ज्वाइन कर ली और आज उन्हें एबी वर्धन का गाइड माना जाता है. RSS के 100 सालों के सफर की 100 कहानियों की कड़ी में आज इसी नेता की जिंदगी और राजनीति की कहानी पेश है.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उन्हें अपने पहले सरकार्यवाह के तौर पर जानता है. नाम था बालाजी हुद्दार. 1902 में आज के मध्य प्रदेश के मंडला में पैदा हुए थे. नाम रखा गया था गोपाल मुकुंद हुद्दार, लेकिन दुनिया भर के कम्युनिस्ट उन्हें जॉन ‘स्मिथ’ के नाम से ज्यादा जानते हैं. कभी संघ संस्थापक डॉ केशव बलिराम हेडगेवार के नंबर 2 यानी सरकार्यवाह के तौर पर उन्हें चुना गया था. अगर वो उसी निष्ठा के साथ जुड़े रहते तो गुरु गोलवलकर की जगह दूसरे सरसंघचालक होते. लेकिन आज उन्हें एबी वर्धन जैसे कम्युनिस्ट नेताओं के गाइड के तौर पर जाना जाता है. नागपुर के वर्धन बाद में सीपीआई के महासचिव बने. कहा जाता है कि नागपुर के धनी ऊधोजी परिवार की एक विधवा ने उन्हें बचपन में डूबने से बचाया था. फिर दोनों का ऐसा लगाव हुआ कि उन्होंने गोपाल को गोद ले लिया और नागपुर ले आईं. तब उनकी उम्र थी महज चार वर्ष. नागपुर से ग्रेजुएशन कर एक गर्ल्स मिशन स्कूल में पढ़ाने भी लगे. फिर छात्र राजनीति में सक्रिय हो गए. पहले डॉ. बीएस मुंजे, फिर डॉ. हेडगेवार के संपर्क में आए. पढ़ने लिखने वाले भी थे और युवाओं के बीच पकड़ भी थी. जब 9-10 नवम्बर 1929 में संघ के पहले पदाधिकारी के तौर पर तीन नाम घोषित किए गए तो उनमें दूसरा नाम बालाजी हुद्दार का ही था. उन्हें सरकार्यवाह (महासचिव) बनाया गया था और सेना से रिटायर्ड मार्तंड राव जोग को सर सेनापति.
लेकिन संघ की स्थापना का जो उद्देश्य था, डॉ हेडगेवार की जो योजना थी, वो यूं ही नहीं बनी थी कि कभी भी आप कुछ भी करने लग जाओ. उसका पहला चरण ही था कि देश भर में देशभक्त युवाओं का संगठन खड़ा करना, जो प्राचीन भारत की परम्पराओं, संस्कृति में विश्वास रखते हों. शुरूआत में ही तय था कि संघ एक संगठन के तौर पर किसी भी आंदोलन में भाग नहीं लेगा लेकिन आजादी के आंदोलन या अन्य किसी आंदोलन, विरोध प्रदर्शन में अगर कोई स्वयंसेवक भाग लेना चाहता है, तो वो संघ की अनुमति से ले सकता है. इसलिए जब सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान खुद डॉ हेडगेवार ने जंगल सत्याग्रह आंदोलन में भाग लेने का निर्णय किया तो सबसे पहले सरसंघचालक का पद छोड़ दिया और अपनी जगह डॉ. परांजपे को ये जिम्मेदारी देकर गए. उनसे स्वयंसेवकों ने कहा भी कि हम संघ के गणवेश में चलेंगे, लेकिन उन्होंने साफ किया कि संघ किसी आंदोलन में भाग नहीं लेगा. हम कांग्रेस के आंदोलन में हैं और बिना गणवेश के ही जाएंगे.
ऐसा ही फैसला सावरकर व हिंदू महासभा के निजाम के खिलाफ आंदोलन में लिया गया था. खुद संघ के कई वरिष्ठ अधिकारियों ने व्यक्तिगत तौर पर उसमें हिस्सा लिया. डॉ हेडगेवार के भतीजे को तो जेल तक हो गई थी, लेकिन संघ ने एक संगठन के तौर पर उस आंदोलन में हिस्सा नहीं लिया. इसके लिए संघ की आलोचना भी हुई थी, फिर भी डॉ हेडगेवार दृढ़ बने रहे. वैसे भी क्रांतिकारी संगठनों से जुड़े रहने के दौरान उन्हें समझ आ गया था कि किसी भी क्रांतिकारी संगठन को ज्यादा दिनों तक नहीं चलाया जा सकता क्योंकि कभी ना कभी हिंसात्मक कार्रवाइयों में रहने के चलते उनको सरकार निशाना बना सकती है. तो शायद ही कांग्रेस का कोई आंदोलन हो जिसमें स्वयंसेवकों ने भाग ना लिया हो, लेकिन संगठन के तौर पर संघ अपनी बात पर कायम रहा और आज भी उसके स्वयंसेवक विभिन्न संगठनों के बैनर तले ही भाग लेते हैं.
लेकिन शायद बालाजी हुद्दार इतना सब्र रखने के लिए तैयार नहीं थे कि देश के कोने-कोने में संगठन खड़ा किया जाए. उसमें तो दशकों लगने थे. सो उन्होंने संघ का पद दो साल से भी कम समय में छोड़ दिया. वैसे भी 27 साल की उम्र में इतने बड़े पद की जिम्मेदारी समझना आसान नहीं था. फिर उनका नाम 1931 में बालाघाट राजनीति डकैती केस में आया. क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए हथियार खरीदने थे और उसके लिए उन्होंने कुछ हथियारबंद साथियों के साथ कुछ जमींदारों के घर डाका डाला. सभी को तीन से पांच साल की सजा हुई. अगर पद पर रहते उनको ये सजा हुई होती, तो शायद संघ के लिए भी मुश्किल हो जाती. यही बात नाना पालेकर ने ‘हेडगेवार चरित’ में लिखी है.
RSS के सौ साल से जुड़ी इस विशेष सीरीज की हर कहानी
1935 में नागपुर जेल से बालाजी हुद्दार की रिहाई हुई और उन्होंने ‘सावधान’ पत्र का सम्पादन शुरू कर दिया. अचानक बालाजी को लगा कि उन्हें पत्रकारिता की पढ़ाई के लिए लंदन जाना चाहिए. इस काम में उनकी मदद डॉ हेडगेवार ने भी की. लेकिन लंदन से बालाजी स्पेन चले गए. उनके सम्पर्क में वामपंथी विचारधारा के लोग आ चुके थे और उनके मन में दुनिया भर में उनकी लड़ाई लड़ने की जिद सवार हो चली थी. बालाजी से बन गए जॉन स्मिथ

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