राष्ट्रपति चुनाव: क्रॉस वोटिंग ने कैसे खोल दी विपक्षी एकता की पोल
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नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद विपक्ष की ओर से विपक्षी दलों की एकजुटता की कोशिश की जाती रही है, लेकिन अभी तक सफलता नहीं मिल सकी. पिछले दो लोकसभा चुनाव में भी नहीं हो पाया और इस बार के राष्ट्रपति चुनाव में भी ऐसा ही कुछ देखने को मिला. विपक्षी खेमे से क्रॉस वोटिंग ने द्रौपदी मुर्मू को भरी मतों एक ओर जिताया तो दूसरी ओर विपक्षी एकता के मंसूबों पर पानी फेर दिया.
राष्ट्रपति पद के चुनाव में एनडीए की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू ने भरी मतों से जीत दर्ज की है. इस संवैधानिक पद पर पहुंचने वाली देश की पहली आदिवासी महिला है. राष्ट्रपति चुनाव में विपक्षी खेमे से 125 विधायक और 17 सांसदों ने द्रौपदी मुर्मू के पक्ष में वोट किया. क्रॉस वोटिंग ने सिर्फ राष्ट्रपति चुनाव में विपक्षी उम्मीदवार यशवंत सिन्हा को ही झटका नहीं दिया बल्कि मोदी सरकार के विपक्षी एकता की संभावना की भी पोल खोल दी है.
राष्ट्रपति चुनाव में एनडीए उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू के शुरू से ही जीतने की उम्मीद थी, लेकिन विपक्ष दलों ने यशवंत सिन्हा को चुनावी मैदान में उतारकर अपनी मोर्चाबंदी करने का सपना संजोया था. इसके बाद भी न विपक्ष पूरी तरह से एकजुट रहा और न ही यशवंत सिन्हा को समर्थन करने वाले दल अपने विधायकों को क्रॉस वोटिंग करने से रोक पाए. इस तरह राष्ट्रपति चुनाव में मुर्मू की जीत विपक्षी दलों और यहां तक कि यूपीए खेमे के अंदर भी दरार को उजागर कर दिया है.
राष्ट्रपति चुनाव में करीब आधा दर्जन से ज्यादा गैर-एनडीए दलों के अलावा, 17 सांसदों और करीब 125 विधायकों ने द्रौपदी मुर्मू के लिए क्रॉस-वोट किया. न्यूज एजेंसी के मुताबिक कांग्रेस शासित छत्तीसगढ़ और झारखंड में भी यूपीए के विधायकों ने मुर्मू को क्रॉस वोटिंग की है. असम में 22, मध्य प्रदेश में 20, बिहार-छत्तीसगढ़ में 6-6, गुजरात-झारखंड में 10, महाराष्ट्र में 16, मेघालय में 7, हिमाचल में 2 और गोवा में 4 विधायकों ने द्रौपदी मुर्मू के पक्ष में मतदान किया.
कांग्रेस से लेकर एनसीपी और सपा ने तो अपने विधायकों को क्रास वोटिंग करने से नहीं रोक सकी और न ही अपने सहयोगी दलों को साधकर रख सकी. कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए खेमे के जेएमएम और शिवसेना ने तो पहले ही द्रौपदी मुर्मू के पक्ष में वोटिंग करने का ऐलान कर दिया था. ऐसे ही यूपी में सपा के सहयोगी दल सुभासपा ने भी मुर्मू को समर्थन किया था. ऐसे में विपक्षी ही नहीं बल्कि यूपीए की एकता पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं.
बता दें कि विपक्ष ने एनडीए से पहले अपने उम्मीदवार के नाम की घोषणा किया था, लेकिन सिर्फ इतना काफी नहीं था. जब एनडीए ने मुर्मू के नाम की घोषणा की थी उसके पास बहुमत का आंकड़ा नहीं था. इसके बावजूद शुरुआत से ही संख्या उसके पक्ष में थी और उसे जीत की दहलीज पार करने के लिए बीजेडी या वाईएसआर कांग्रेस जैसे मजबूत पार्टी के अतिरिक्त समर्थन की आवश्यकता थी.
ऐसी स्थिति में विपक्ष के पास एक ही तरकीब हो सकती थी कि वह ऐसे उम्मीदवार को खड़ा करे जो पूरे विपक्ष को एकजुट कर सके. विपक्ष का ऐसा उम्मीदवार होता जिसका विरोध करने की एक राजनीतिक कीमत होती, और बीजेपी बैकफुट पर आ जाती. ऐसा उम्मीदवार जो बीजेपी के प्रमुख सहयोगियों के साथ-साथ 'तटस्थ' रहने वाली पार्टियों का समर्थन भी सुनिश्चित करता. विपक्ष अगर राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त किसी व्यक्ति को मैदान में उतारा होता या किसी ऐसे व्यक्ति को उम्मीदवार बनाया होता जिसकी सामाजिक या भौगोलिक पृष्ठभूमि ने बीजेपी या उसके किसी सहयोगी पार्टियों को मुश्किल स्थिति में डाल दिया होता.
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