
रघुपति राघव भजन को दिए सुर, शास्त्रीय संगीत को दी पहचान... कौन थे पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर
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उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत के पुरोधा रहे हैं आचार्य पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर. पलुस्कर ने ही राग मिश्र में 'रघुपति राघव राजा राम भजन' को पिरोया था और वह इसे नित्य अपनी पूजा में गाया करते थे. जिस समय में भारतीय शास्त्रीय संगीत अपनी चमक खो रहा था, पंडित जी ने इसे फिर से प्रकाशित किया और इसके लिए सबसे अच्छा मंच उन्हें स्वतंत्रता आंदोलनों में ही मिला.
12 मार्च 1930 को आधी धोती ओढ़े और आधी लपेटे महात्मा गांधी ने जब 'नमक कानून' तोड़ने का ऐलान किया तो इस इकहरे बदन वाले महामानुष के प्रण ने देशभर के सीने में ऊर्जा और उत्साह भर दिया. बापू नमक बनाने के लिए हाथ में लाठी लिए निकल पड़े और गांधी के इस बुलंद फैसले के बाद पूरा देश उनके पीछे चल पड़ा.उनकी लाठी अहिंसा की थी और यह यात्रा विरोध की.
साबरमती आश्रम से दांडी तक की ये यात्रा पूरे 327 किमी का सफर था, जिसे दांडी मार्च के नाम से जाना गया. यह मार्च भले ही महात्मा गांधी ने अकेले शुरू किया था, लेकिन धीरे-धीरे एक बड़ा कारवां इससे जुड़ता चला गया. इस हुजूम को एकजुट करने में जिसकी बड़ी भूमिका थी, वो था एक प्राचीन भजन, महात्मा का सबसे प्रिय भजन... 'रघुपति राघव राजा राम, पतित पावन सीता राम', 'ईश्वर अल्लाह तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान'
महात्मा गांधी ने किया था मूल भजन में बदलाव! जब महात्मा गांधी ने इस भजन को दांडी मार्च का समूह गान बनाया तो कहते हैं कि उन्होंने इसके मूल शब्दों में बदलाव किया था और पंथ निरपेक्षता के साथ लोगों की आवाज बनाने की कोशिश की थी. उन्होंने मूल भजन में ईश्वर के साथ 'अल्लाह' शब्द को जोड़ा और फिर यह भजन, जन-जन का गीत बन गया. साबरमती आश्रम से लेकर दिल्ली में होने वाली महात्मा गांधी की प्रार्थना सभाओं में यह भजन गाया जाने लगा और इसकी वैश्विक पहचान गई थी.
भजन के जरिए लोगों को अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ किया एकजुट रामधुन के कई संस्करण हैं, और महात्मा गांधी ने जिस संस्करण का इस्तेमाल किया, उसमें "सार्वभौमिकता" थी. महात्मा गांधी द्वारा मूल भजन को संशोधित करने के पीछे मंशा थी कि, हिंदुओं का ईश्वर और मुसलमानों का अल्लाह एक ही है. इस तरह यह उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ एकजुट करने का प्रयास था.
लेकिन इस भजन को सुर किसने दिए थे? उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत के पुरोधा रहे हैं आचार्य पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर. पलुस्कर ने ही राग मिश्र में इस भजन को पिरोया था और वह इसे नित्य अपनी पूजा में गाया करते थे. जिस समय में भारतीय शास्त्रीय संगीत अपनी चमक खो रहा था, पंडित जी ने इसे फिर से प्रकाशित किया और इसके लिए सबसे अच्छा मंच उन्हें स्वतंत्रता आंदोलनों में ही मिला, जहां वह बैठकों और भाषणों की शुरुआत से पहले संगीत प्रस्तुति दिया करते थे. इसी दौरान उन्होंने कई मौकों पर रामधुन भी गाया था, जो महात्मा गांधी को बेहद प्रिय लगा और वह इसे बार-बार सुनते थे.
पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर ने शास्त्रीय संगीत को दी नई पहचान पंडित पलुस्कर को भारतीय शास्त्रीय संगीत के बुझते दीपक में फिर से चेतना का संचार करने वाला कहा जाए तो यह कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. आजकल जो गली-गली में संगीत विद्यालय और सेंटर्स दिखाई देते हैं, यह उनकी ही देन है. उन्होंने अपने वक्त में जब ये देखा कि भारतीय शास्त्रीय संगीत और खासतौर पर उत्तर भारतीय संगीत एक तरह से परंपरा से ही गायब होता जा रहा है. इसके अलावा नए शिष्यों को ठीक से प्रशिक्षण भी नहीं मिल पा रहा है.

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