मुलायम, अखिलेश, योगी... यूपी में हर बार क्यों फेल हो जाता है OBC जातियों को दलित में शामिल करने का दांव?
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उत्तर प्रदेश में 17 ओबीसी जातियों को अनुसूचित जाति की श्रेणी में शामिल करने के अरमानों पर हाईकोर्ट ने पानी फेर दिया. पिछले दो दशक से सूबे में कुछ अतिपिछड़ी जातियां एससी में शामिल होने के लिए मशक्कत कर रही हैं, लेकिन अनुसूचित जाति में शामिल होने की प्रक्रिया और अदालत के चक्कर में हर बार दांव उल्टा पड़ रहा है.
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने बुधवार को ओबीसी की 18 जातियों को अनुसूचित जाति की कैटेगरी में शामिल करने वाले नोटिफिकेशन को रद्द कर दिया है. इस तरह से उत्तर प्रदेश की डेढ़ दर्जन पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति आरक्षण पाने के मंसूबों पर एक बार पानी फिर गया है. पिछले दो दशकों से इन ओबीसी जातियों को दलित कैटेगरी में शामिल करने की कोशिशें की जा रही हैं, क्योंकि ये पिछड़ों में भी सबसे ज्यादा पिछड़े हैं. मुलायम सिंह से लेकर अखिलेश यादव और योगी आदित्यनाथ की सरकार तक ने कवायद कर ली, लेकिन हर बार अदालत के दहलीज पर जाकर दांव फेल हो जाता है? बता दें कि उत्तर प्रदेश में करीब 52 फीसदी आबादी पिछड़ा वर्ग की है और उनके लिए 27 फीसदी आरक्षण मिल रहा. ओबीसी में करीब 3000 से ज्याद उपजातियां शामिल हैं. सूबे में ऐसी ही अनुसूचित जाति की आबादी करीब 22 फीसदी है और उसे 21 फीसदी आरक्षण मिल रहा. ऐसे में ओबीसी में कुछ जातियां ऐसी हैं, जो दूसरे राज्यों में अनुसूचित जाति की श्रेणी में आती है. इसके चलते लंबे समय इनकी मांग रही है कि उन्हें दलित कैटेगरी में डाला जाए, क्योंकि समाज में काफी पिछड़े हैं. अनुसूचित जाति में शामिल आने पर उन्हें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक तीनों लाभ ओबीसी में रहने से कहीं बहुत ज्यादा मिल सकता है.
मुलायम ने सबसे पहले चला दांव सपा संरक्षक मुलायम सिंह यादव ने यूपी के मुख्यमंत्री रहते हुए 2005 में 17 ओबीसी की जातियों को अनुसूचित जाति की सूची में शामिल करने के लिए अधिसूचना जारी कर दी, जिसे लेकर हाई कोर्ट ने रोक लगा दी थी. हाईकोर्ट में मिली मात के बाद मुलायम सिंह ने प्रस्ताव केंद्र के पास भेज दिया. इसके बाद सूबे में मायावती की सरकार बनी तो 2007 में मुलायम के प्रस्ताव खारिज कर दिया, लेकिन इन जातियों के आरक्षण के संबंध में तत्कालीन केंद्र की कांग्रेस सरकार को पत्र लिखकर कहा था कि ओबीसी की इन 17 जातियों को एससी श्रेणी में आरक्षण देने के पक्ष में तो थीं, लेकिन दलितों के आरक्षण का कोटा 21 से बढ़ाकर 25 प्रतिशत कर दिया जाए. इस तरह मामला अधर में लटक गया.
अखिलेश के फैसले पर कोर्ट का ग्रहण
मायावती के बाद अखिलेश यादव यूपी के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने दिसंबर 2016 को आरक्षण अधिनियम-1994 की धारा-13 में संशोधन कर 17 ओबीसी जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने के लिए बकायदा एक प्रस्ताव लेकर आए और उसे पहले कैबिनेट से मंजूरी देकर केंद्र को नोटिफिकेशन भेजा. अखिलेश सरकार की तरफ से जिले के सभी डीएम को आदेश जारी किया गया था कि इस जाति के सभी लोगों को ओबीसी की बजाय एससी का सर्टिफिकेट दिया जाए. ऐसे में भीमराव अंबेडकर ग्रंथालय और जनकल्याण समिति के अध्यक्ष ने इलाहाबाद हाई कोर्ट में चुनौती, जिसके चलते कोर्ट ने 24 जनवरी 2017 को इस नोटिफिकेशन पर रोक लगा दी. इसी बीच मामला केंद्र सरकार के सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय में भी फंस गया.
योगी सरकार जवाब दाखिल नहीं कर सकी
स्थगनादेश खत्म होने के बाद उसके पालन में 24 जून, 2019 को योगी सरकार ने भी हाई कोर्ट के निर्णय का संदर्भ लेते हुए अधिसूचना जारी कर दी. 17 जातियों को अनुसूचित जाति वर्ग में शामिल करते हुए प्रमाण पत्र जारी करने का आदेश कर दिया गया, लेकिन तमाम तकनीकी कारणों और अदालत में मामला होने के चलते जाति प्रमाण पत्र जारी नहीं हो पा रहे थे. हाईकोर्ट में राज्य सरकार की ओर से लगभग पांच साल बीत जाने के बाद अपना जवाब दाखिल नहीं किया था. ऐसे में बुधवार को हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस राजेश बिंदल और जस्टिस जेजे मुनीर की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने फैसला सुनाया कि राज्य सरकार के पास अनुसूचित जाति सूची में बदलाव करने की शक्ति नहीं है और इसलिए यूपी सरकार द्वारा जारी अधिसूचना को रद्द कर दिया.
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