
मजबूरी या रणनीति? लेटरल एंट्री पर मोदी सरकार के कदम वापस लेने के पीछे क्या वजह
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लेटरल एंट्री विवाद पर केंद्र सरकार ने अपने कदम वापस ले लिए हैं. सरकार ने यूपीएससी को पत्र लिखकर लेटरल एंट्री का विज्ञापन रद्द करने के लिए कहा है. ये मजबूरी में लिया गया फैसला है या सरकार की सोची-समझी रणनीति?
केंद्र सरकार में जॉइंट सेक्रेटरी, डिप्टी सेक्रेटरी और डायरेक्टर लेवल के 45 पद लेटरल एंट्री के जरिये भरने के लिए यूपीएससी ने विज्ञापन दिया था. लेटरल एंट्री के जरिये भर्ती के इस विज्ञापन को आरक्षण छीनना बताते हुए विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने मोर्चा खोल दिया तो वहीं सत्ताधारी गठबंधन में शामिल लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) और जनता दल (यूनाइटेड) जैसी पार्टियां भी विरोध में उतर आईं. मोदी सरकार ने अब यूपीएससी की चेयरमैन को पत्र लिखकर लेटरल एंट्री का विज्ञापन रद्द करने के लिए कहा है.
कांग्रेस इसे राहुल गांधी, विपक्षी दलों और एनडीए के घटक दलों के विरोध की वजह से मजबूरी में लिया गया फैसला बता रही है. मोदी सरकार के इस रोलबैक को गठबंधन सरकार की मजबूरी से भी जोड़ा जा रहा है. सवाल है कि ये मजबूरी में लिया गया फैसला है या कोई सोची-समझी रणनीति? दरअसल, पीएम मोदी की इमेज ऐसे नेता की रही है जिसे पता है कि विरोध के हर स्वर को कैसे अपने लिए कवच बना लेना है.
लोकसभा चुनाव के पहले से ही विपक्ष की रणनीति पीएम मोदी और सरकार को संविधान, जातिगत जनगणना और आरक्षण को लेकर लेकर घेरने की रही है. लोकसभा चुनाव में 400 पार का नारा देने वाली बीजेपी अकेले दम पूर्ण बहुमत के जादुई आंकड़े तक भी नहीं पहुंच पाई तो उसके पीछे बड़ी वजह यही बताया गया कि विपक्ष उसकी इमेज आरक्षण विरोधी की सेट करने में सफल रहा. लेटरल एंट्री के विज्ञापन ने आरक्षण के मुद्दे पर बीजेपी के खिलाफ नया मोर्चा खोलने का मौका दे दिया. जेडीयू के केसी त्यागी ने कहा भी- इस तरह के फैसलों से सरकार विपक्ष को बैठे-बिठाए मुद्दा दे रही है.
अब लेटरल एंट्री का विज्ञापन रद्द करने के लिए सरकार की ओर से यूपीएससी को जो पत्र लिखा गया है, उसमें विपक्ष की ओर से आरक्षण विरोधी बताने वाले गुब्बारे की हवा निकालने की कोशिश के साथ ही विरोध की मुखर आवाज कांग्रेस को ही कठघरे में खड़ा करने की रणनीति नजर आ रही है. कार्मिक मंत्रालय और पीएमओ में राज्यमंत्री डॉक्टर जितेंद्र सिंह ने यूपीएससी की चेयरमैन प्रीति सूदन को लिखे पत्र में लेटरल एंट्री की पूरी पृष्ठभूमि का जिक्र किया है.
उन्होंने लिखा है कि सैद्धांतिक रूप से लेटरल एंट्री की सिफारिश साल 2005 में वीरप्पा मोइली की अगुवाई में गठित द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने की थी. 2013 में छठे वेतन आयोग की सिफारिशें भी इसी दिशा में थीं. इसके पहले और बाद में, लेटरल लेटरल एंट्री के कई हाई-प्रोफाइल मामले सामने आए हैं. पिछली सरकारों में विभिन्न मंत्रालयों में सचिव जैसे महत्वपूर्ण पद, यूआईडीएआई का नेतृत्व आरक्षण की किसी प्रक्रिया का पालन किए बिना लेटरल एंट्री वालों को दिए गए हैं. यह भी सभी जानते हैं कि राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य एक सुपर-नौकरशाही चलाते थे जो पीएमओ को कंट्रोल करती थी. 2014 से पहले अधिकांश प्रमुख लेटरल एंट्रीज तदर्थ तरीके से की गई थीं जिनमें पक्षपात के आरोप भी लगे.
वीरप्पा मोइली की गिनती कांग्रेस के बड़े नेताओं में होती है. 2004 से 2014 तक देश में कांग्रेस की अगुवाई वाले यूपीए की सरकार रही. सचिव और यूआईडीआईए के नेतृत्व, एनएसी का जिक्र और लेटरल एंट्रीज में पक्षपात के आरोप, ये सब सरकार की ओर से ये स्थापित करने की कोशिश बताए जा रहे हैं कि लेटरल एंट्री उसी कांग्रेस ने शुरू की थी जो आज इसे मुद्दा बनाकर सरकार को घेर रही है. कांग्रेस नेता की अगुवाई वाली कमेटी ने ही इसकी सिफारिश की थी और आज जब मोदी सरकार के दौरान उसी तरह की नियुक्तियों के लिए विज्ञापन जारी किए गए तब वे हंगामा कर रहे हैं. उन्होंने अपने पत्र में लिखा भी है- सरकार का प्रयास लेटरल एंट्री की प्रक्रिया को खुला, पारदर्शी और संस्थागत बनाने का है.

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