बामसेफ को मिला राजपूत संगठनों का साथ, भीमा कोरेगांव युद्ध की बरसी पर मिलाया हाथ, निकाला मार्च
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भीमा कोरेगांव की लड़ाई की 206वीं वर्षगांठ मनाने के लिए राजपूत और दलित संगठन सोमवार को एक साथ आए. पुणे के पास भीमा कोरेगांव गांव में कार्यक्रम आयोजित किया गया. इसमें कई राजपूत संगठनों ने दलित समूहों के साथ मार्च किया. यह ऐतिहासिक लड़ाई 1 जनवरी 1818 को हुई थी.
भीमा कोरेगांव के ऐतिहासिक युद्ध के बाद पहली बार राजपूत संगठनों ने सालगिरह मनाने के लिए दलित संगठनों के साथ हाथ मिलाया है. महाराष्ट्र में पुणे के पास भीमा कोरेगांव गांव में हुए कार्यक्रम में कई राजपूत संगठनों ने दलित के साथ मार्च किया. बामसेफ संगठन ने कहा कि इस युद्ध में जान गंवाने वाले 6 लोग क्षत्रिय समाज से जुड़े थे. क्षत्रिय समाज ने यह लड़ाई मिलकर लड़ी थी.
बता दें कि भीमा कोरेगांव क्षेत्र में 1 जनवरी, 1818 को ब्रिटिश भारतीय सेना के 834 सैनिकों और तत्कालीन पेशवा सेना के 28,000 सैनिकों के बीच युद्ध हुआ था. अखिल भारतीय पिछड़ा (एससी, एसटी, ओबीसी) और अल्पसंख्यक समुदाय कर्मचारी महासंघ (BAMCEF) के डॉ. भूरा राम ने कहा कि मरने वाले 275 में से छह क्षत्रिय समुदाय से ताल्लुक रखते थे.
'युद्ध के मैदान में साबित किया'
उन्होंने कहा, 'वीरों को भूमि विरासत में मिलेगी' यह क्षत्रियों का आदर्श वाक्य है और महार की लड़ाई में दलितों, क्षत्रियों, मराठों और मुसलमानों ने मिलकर युद्ध के मैदान में इसे साबित किया था. इस लड़ाई के छह शहीद राजपूत थे. उन्होंने कहा, हमें यह देखकर खुशी हुई. देशभर से हमारे क्षत्रिय भाई इस ऐतिहासिक लड़ाई की 206वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में हमारे साथ शामिल हो रहे हैं. यह दलितों और पिछड़ों के लिए एक बड़ा दिन है, जिन्होंने क्षत्रियों के साथ मिलकर अत्याचार के खिलाफ लड़ाई लड़ी.
'एक-दूसरे को खड़ा करने की कोशिश की गई'
डॉ. भूरा राम ने कहा, आजादी के बाद इन समुदायों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करने के लिए प्रचार के बावजूद मूल निवासी और क्षत्रिय समुदाय देश के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य को बदलने के लिए एकजुट हो रहे हैं. दलितों को पेशवाओं के खिलाफ खड़ा होना पड़ा, क्योंकि अत्याचारी सेना द्वारा प्रताप भोंसले के अपहरण के अलावा महारों को अछूत बताने वाले मनुस्मृति के नियमों को लागू किया गया था.
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