
डिप्लोमेसी की जिस 'अफगान जलेबी' से मुंह जला चुके हैं रूस-अमेरिका, उसी को देख ललचा रहा चीन!
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चीन की रणनीति रूस और अमेरिका की तुलना में अधिक सतर्क और नॉन मिलिट्री है. चीन ने अपने मंसूबे को विकास के लबादे से ढक दिया है. लेकिन अफगानिस्तान में चीन के प्रोजेक्ट कितने टिकाऊ होंगे यह इस पर निर्भर करता है कि अफगानिस्तान में आंतरिक सुरक्षा की स्थिति क्या है.
अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में उम्मीद की एक नई आमद हुई है. ये आमद है 'विकास' की. रूस और अमेरिका के बाद इस दफे विकास की ये किश्त लेकर आया है चीन. यूं तो चाइनीज गारंटी और चाइनीज प्रोडक्ट हमेशा से ही शक के घेरे में रहती है, पर इतिहास से लेकर वर्तमान तक बम और बारूद की गंध से महकते रहने वाले अफगानिस्तान की जमीन पर चाइनीज विकास के दावे ने एक्सपर्ट्स और थिंक टैंक्स को सतर्क कर दिया है.
अफगानिस्तान, जिसे "साम्राज्यों का कब्रिस्तान" कहा जाता है, जहां अपना राज स्थापित करने के लिए दुनिया के कई एम्पायर आए और सालों तक प्रतिरोध की आग को झेलते हुए थक-हारकर, पस्त होकर लौट गए. रूस और अमेरिका दोनों बारी-बारी से इस जटिल भू-राजनीतिक "जलेबी" को खाने की कोशिश में अपनी-अपनी जीभ जला चुके हैं.
लेकिन अब चीन सतर्क और अवसरवादी दृष्टिकोण अपनाते हुए इसी 'अफगानी जलेबी' की लालच में काबुल आ रहा है. चीन और अफगानिस्तान ने कहा है कि चीन के जिनजियांग क्षेत्र से पाकिस्तान के ग्वादर आने वाले खरबों डॉलर के इकोनॉमिक कॉरिडोर का विस्तार अफगानिस्तान तक किया जाएगा.
मौके पर अफगानिस्तान को भरोसे में लेने के लिए चीन के उप प्रधानमंत्री वांग यी ने अच्छे-अच्छे बयान दिए. दुनिया के कई देशों को कर्जे के जाल में फंसाकर बंदरगाह और एयरपोर्ट हड़पने वाले चीन के डिप्टी पीएम ने कहा कि चीन अफगान स्वतंत्रता, संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता के साथ-साथ अफगान लोगों की स्वतंत्र पसंद, धार्मिक विश्वासों और जातीय संस्कृति का सम्मान करता है – और विदेशी आक्रमण के खिलाफ उनके न्यायोचित संघर्ष का समर्थन करता है.
लेकिन सवाल यह है कि क्या चीन के ये वादे अभी भी कबीलाई सिस्टम पर यकीन करने वाले अफगानियों के प्रतिरोध को खत्म कर देगा. आइए इतिहास समझते हैं.
सोवियत रूस और अमेरिका की असफलता

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