
जातिवादी राजनीति की सबसे बड़ी खिलाड़ी तो बीजेपी है
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बीजेपी जाति जनगणना के पक्ष में कभी नहीं रही है, क्योंकि RSS हिंदुओं को एकजुट रखना चाहता है. लेकिन, अब बीजेपी की ही सरकार ने ये काम कराने जा रही है. कुछ लोग ऐसा भी समझ रहे हैं कि बीजेपी ये काम विपक्ष के दबाव में करने जा रही है, जबकि जातीय राजनीति तो सबसे ज्यादा बीजेपी ही करती है.
बीजेपी के विरोधी भले ही उसे सांप्रदायिक और हिंदू-मुस्लिम करने वाली पार्टी के तौर पर प्रचारित करते रहे हों, लेकिन असल में वो सबसे बड़ी जातिवादी पार्टी है. नेतृत्व से लेकर बूथ लेवल पर मैनेजमेंट तक जातीय नेताओं और कार्यकर्ताओं के जरिये ही बीजेपी पूरा चुनाव मैनेजमेंट करती है.
प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति पद ही नहीं, राज्यों के मुख्यमंत्रियों और यहां तक कि चुनावी गठबंधन करने में भी बीजेपी माइक्रो लेवल पर जातीय समीकरणों के हिसाब से ही करती है. आने वाले बिहार चुनाव में भी ऐसा ही नजारा देखने को मिलने वाला है, और यूपी में भी बीजेपी के सारे गठबंधन साथी अपनी अपनी जातियों के प्रतिनिधि ही तो हैं - हिंदुत्व की राजनीति का एजेंडा तो, असल में, हाथी के दिखाने के दांत हैं, खाने के दांत तो गहराई तक जातियों में जकड़े हुए हैं.
1. ओबीसी प्रधानमंत्री, एससी-एसटी से राष्ट्रपति
पहले भले ही बीजेपी ब्राह्मणों और बनियों की पार्टी मानी जाती रही हो, लेकिन धीरे धीरे पार्टी ने दलितों और पिछड़ों में घुसपैठ कर ली है - सवर्ण तो बीजेपी के साथ अब टीना फैक्टर के चलते जुड़े हुए लगते हैं, आखिर जायें तो जायें कहां?
ये लगातार दूसरी बार है जब बीजेपी ने देश के सबसे बड़े पद पर SC/ST समुदाय से राष्ट्रपति बनाया है. राष्ट्रपति द्रौपदी मूर्मू आदिवासी समुदाय से आती हैं, जबकि उनसे पहले पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद भी दलित समुदाय से ही थे.
और, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो बीजेपी के सबसे बड़े ओबीसी चेहरा हैं. सरकार से संगठन तक हर कदम पर करीब करीब ऐसी ही तस्वीर नजर आती है.

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