
जब मरे हुए बेटे को जीवित करना चाहती थी मां, बुद्ध की एक सीख ने बदल दी सोच
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एक दिन, एक महिला बुद्ध के पास पहुंची. उसके चेहरे पर गहरा दुख था, आंखों से आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे और उसकी गोद में उसका मृत पुत्र था. गौतम बुद्ध से वह बोली “प्रभु, मेरी सहायता कीजिए, मेरे बच्चे को फिर से जीवित कर दीजिए.” महिला की बात सुनकर बुद्ध मौन हो गए थे.
गौतम बुद्ध, जिन्हें बौद्ध धर्म का प्रवर्तक माना जाता है, न केवल एक धार्मिक गुरु थे बल्कि शांति, करुणा और अहिंसा के प्रतीक भी थे. उनका जन्म 563 ईसा पूर्व लुंबिनी (वर्तमान नेपाल) में हुआ था और ज्ञान प्राप्ति के बाद वे “बुद्ध” के नाम से प्रसिद्ध हुए. 35 वर्ष की आयु में बोधगया में उन्होंने सत्य की अनुभूति की और एक तपस्वी से विश्वगुरु बन गए. उन्होंने अहिंसा, दुःख के कारण और मोक्ष के मार्ग को समझाकर मानवता को एक नई दृष्टि दी.
हर वर्ष वैशाख पूर्णिमा के दिन बुद्ध जयंती मनाई जाती है. यही वह पावन दिन है जब उनका जन्म, ज्ञान प्राप्ति और महापरिनिर्वाण तीनों घटित हुए थे. इस दिन को बुद्ध पूर्णिमा के रूप में भी जाना जाता है और यह विश्वभर में करुणा और शांति के संदेश का प्रतीक है.
लेकिन बुद्ध का जीवन केवल उपदेशों का नहीं, अनुभवों का भी है. एक ऐसा ही मार्मिक घटना हमें यह सिखाती है कि कैसे वे अपने शिष्यों और आम जन को जीवन का असली अर्थ समझाते थे. चाहे वह पीड़ा में डूबी एक मां ही क्यों न हो.
एक बार एक महिला बुद्ध के पास पहुंची. उसके चेहरे पर गहरा दुख था, आंखों से आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे और उसकी गोद में उसका मृत पुत्र था. गौतम बुद्ध से वह बोली “प्रभु, मेरी सहायता कीजिए, मेरे बच्चे को फिर से जीवित कर दीजिए.” महिला की बात सुनकर बुद्ध मौन हो गए. थोड़ी देर बाद उस बिलखती हुई महिला की ओर देखकर बुद्ध ने बड़ी शांति से कहा “मैं तुम्हारे पुत्र को जीवन दे सकता हूं, लेकिन एक शर्त है. मुझे एक मुठ्ठी सरसों के दाने लाकर दो- ऐसे घर से, जहां कभी किसी की मृत्यु न हुई हो.”
महिला को यह कार्य सरल लगा. वह तुरंत गांव-गांव, घर-घर घूमने लगी. हर द्वार पर जाकर उसने एक ही सवाल किया “क्या आपके घर में कभी किसी की मृत्यु नहीं हुई?” उसे हर घर से एक जैसे ही उत्तर मिले. किसी घर में पिता नहीं रहे. कहीं मां चल बसी. कहीं भाई, बहन या संतान को खोया गया था. हर घर की अपनी एक दुखद गाथा थी. जैसे-जैसे वह महिला इन कहानियों को सुनती गई. उसका दृष्टिकोण बदलता गया. वह यह समझने लगी कि मृत्यु तो प्रत्येक जीवन का हिस्सा है. कई घरों का दौरा करने के बाद जब वो महिला खाली हाथ वापस बुद्ध के पास लौटी तो उसकी आंखों में आंसू थे. लेकिन अब उनमें केवल शोक नहीं, बोध भी था.
महिला को खाली हाथ देखकर बुद्ध बोले “क्यों बहन, सरसों के दाने लाई?” भगवान का सवाल सुन महिला कुछ न कह सकी. वह बुद्ध के चरणों में बैठ गई और रोने लगी. अब वह जान चुकी थी कि जीवन और मृत्यु दोनों ही शाश्वत सत्य हैं और मोह ही पीड़ा का कारण है. बुद्ध ने उसे करुणा से आशीर्वाद दिया. अब वह मां अपने मृत पुत्र का अंतिम संस्कार करने के लिए निकल पड़े. इस बार केवल एक शव नहीं, बल्कि समझ और शांति के साथ.

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