
चुनाव सुधार का संकट... क्या बैलेट पेपर से वोटिंग के लिए तैयार है विपक्ष और देश?
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संसद में चुनाव सुधारों पर बहस हो रही है. ईवीएम पर सवाल उठाने वाले विपक्ष के कई नेता अब बैलेट पेपर्स से चुनाव करवाने की डिमांड कर रहे हैं. सवाल उठता है कि क्या बिजली सेक्टर अगर ठीक से काम नहीं कर रहा है तो हम सुधार करेंगे, उसे और रोशन और पारदर्शी बनाएंगे या लालटेन युग में जाने की मांग करेंगे?
संसद में चुनाव सुधार पर चर्चा हो रही है. देखने में आ रहा है कि विपक्ष कुछ बड़े नेताओं ने जिसमें उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव , कांग्रेस नेता मनीष तिवारी, आजाद समाज पार्टी के नेता चंद्रशेखर आदि जैसे कई पार्टियों के नेता चाहते हैं कि देश में भविष्य के चुनाव ईवीएम की जगह बैलेट पेपर से हो.
अखिलेश यादव ने ईवीएम पर उठते सवालों और विश्वसनीयता को देखते हुए भारत को फिर से बैलेट पेपर पर लौटना चाहिए. उन्होंने जर्मनी का उदाहरण देते हुए कहा कि वहां ईवीएम से दिया गया वोट मान्य ही नहीं माना जाता, इसलिए भारत में भी पारंपरिक बैलेट प्रक्रिया को लागू करना जरूरी है ताकि आम लोगों को कोई संदेह न रहे. उन्होंने कहा कि कई उपचुनावों में वोट चोरी नहीं हुई, बल्कि सीधे-सीधे वोट की डकैती हुई है.
जाहिर है कि मनुष्य की प्रकृति है कि पास्ट बहुत अट्रैक्ट करता है.पर भारत में जिस तरह वोटिंग होती रही है उसे तो सोचकर रूह कांप जाती है. बैलेट से चुनाव की मांग करने वाले भूल जाते हैं कि उस दौर के चुनावों में हिंसा, बूथ लूटना, फर्जी वोटिंग आदि ने पूरे शबाब पर होती थी.
सवाल यह उठता है कि क्या अगर रेलवे और एविएशन सेक्टर ठीक ढंग से काम नहीं कर रहा है तो क्या हमें बैलगाड़ी युग में चले जाना चाहिए. या बिजली व्यवस्था बदहाल हो गई है तो लालटेन युग में जाना चाहिए. सामान्य तर्क शक्ति रखने वाला कोई भी शख्स जिसने बैलेट पेपर्स से होने वाले चुनावों का हाल देखा है वो कभी नहीं चाहेगा कि देश में फिर ईवीएम को रिटायर कर दिया जाए.
बैलेट पेपर युग (1952–2004 तक) में भारत में क्या-क्या होता था. आइये याद करते हैं पुराना जमाना...
1- क्या हम चाहेंगे कि बूथ कैप्चरिंग फिर आम हो जाए

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