आसाराम को मिली सजा... 'हमने मिठाइयां बांटी, परिवार 10 साल बाद चैन की नींद सोया'
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गांधीनगर कोर्ट ने जब आसाराम बापू को सजा सुनाई तो 10 बरस से सहमा एक परिवार रो पड़ा. ये आंसू न्याय और खुशी के आंसू थे. पढ़िए इस मामले की पीड़िता और उसके परिवार के संघर्ष की कहानी.
उत्तर प्रदेश के एक छोटे शहर में यह एक मध्यमवर्गीय परिवार जो 2002 में आसाराम का भक्त बना. उनके मन से लेकर उनके घर की दीवारों पर हर जगह आसाराम छा गए थे. इस अंध भक्ति के 11 साल बाद जब परिवार की बेटी के साथ आसाराम ने गलत किया तो परिवार ने सब सहकर चुप रहने के बजाय लड़ने की ठानी. इन दस सालों में परिवार ने बहुत कुछ सहा. आइए उस पीड़िता के परिवार की दस साल की कठिन यात्रा की कहानी उन्हीं की जुबानी जानते हैं, पत्रकारिता मानकों के अनुरूप हम यहां उस परिवार की किसी भी तरह की पहचान नहीं दे रहे हैं.
खुद पर संदेह, डर, अनिश्चितता, धमकियों के बीच 3456 दिन जो हमने जिए हैं, उसे जीने की कल्पना भर से कोई भी सिहर जाएगा. आसाराम जैसे नामी आदमी के खिलाफ न्याय की जंग छेड़ी थी, उसके पास पैसा-पॉवर सब था. बड़ी-बड़ी हस्तियां, नामी नेता उसके मंच पर आकर सिर झुकाते थे. जिसके अंध समर्थक उसे भगवान मानते थे, कुछ तो अभी भी मानते हैं. बहुत सारे भक्त तो मुझे मिटा देने की हद तक मुझसे खफा थे. लेकिन वो कहते हैं न कि वक्त और कानून सबका इंसाफ कर देता है. उसी कानून ने मेरे साथ भी न्याय किया. 30 जनवरी की रात पहली बार मेरी बेटी और हम सब पूरा परिवार चैन की नींद सोए. कोर्ट का फैसला आते ही हमने परिवार में मिठाईयां बांटीं, खुशियां मनाई. बेटी बस यही बोली कि पापा, दुष्ट को सजा हुई ये अच्छा हुआ वरना लोग हम पर ही शक करते थे.
आपको अतीत की बात बताऊं तो आसाराम आश्रम से मेरा रिश्ता साल 2002 में जुड़ा था. अब तो ये सोचकर ही खुद पर गुस्सा आता है कि मैंने ये फैसला किया ही क्यों. लेकिन वो दौर ही अलग था. मैंने अपने आप को बिजनेस में स्थापित कर लिया था. अच्छी खासी कमाई हो जाती थी. बस, एक उदासी और नीरसता मेरे जीवन में जगह बना रही थी. मेरे मन में बस ये आता था कि मैं किसी सद्मार्ग से जुड़कर मोक्ष प्राप्त करूं. उसी दौर में मैं परिवार सहित आश्रम से जुड़ा तो हमारा खानपान और जीवनशैली सब बदलने लगी. देखते ही देखते हम सूचना संचार से कटने लगे थे. मेरे घर में टीवी में न्यूज चैनल की जगह धार्मिक चैनल ने ले ली थी. अखबार-मैग्जीन की जगह हम आश्रम का साहित्य पढ़ने लगे थे.
इसके पीछे वजह ये थी कि दरअसल, वो हर सत्संग में मीडिया का जिक्र करता था. हम सोचते थे कि मीडिया इसकी दुश्मन है. वो अपने सभी सत्संगियों का पहले ही ब्रेनवाश कर देता था. वो कहता था कि देखो, मेरे खिलाफ मीडिया दुष्प्रचार करता है, मेरा कोई कुछ नहीं बिगाड़ पाया, सांच को आंच नहीं होती. वो कहता था कि बस ये दो चैनल देखो, ये वो चैनल थे जिसमें सिर्फ उसी का जिक्र होता था. वो उसके खुद के थे. वो कहता था कि उन्हीं चैनलों को देखा करो उसमें लाइव आएगा.
सच कहूं तो हमने उसके आश्रम और भक्ति में बहुत धन लुटाया. हम शुरू में अपनी कमाई का 10 पर्सेंट उसे देते थे. फिर इसने हमारा दिमाग ऐसा घुमाया कि पत्नी भी कहने लगी कि क्या करेंगे हम पैसा रखकर, धर्म के काम में लगाओ. इस तरह हमने इसके बाद 80 पर्सेंट तक उस पर खर्च करना शुरू कर दिया. अपने शहर में उसका बड़ा सत्संग कराया जिसमें 5 लाख रुपये खर्च हुए. फिर आश्रम के लिए जमीन खरीदी. एक दिन उसने कहा कि मैं इसी महीने आऊंगा लेकिन किसी के घर या कहीं और नहीं रुकूंगा. फिर उसकी कुटिया बनाई और कहीं और नहीं रुकाया. वो हमसे कहता था कि जो तुम दान पुन्य करते हो, तुम्हारी 21 पीढ़ियां तर जाएंगी, उससे 21 पीढियों को पुन्य मिलता है. हम सोचते थे कि जब हमारा कल्याण हो रहा है तो क्यों हम अपने लिए बचाएं. हमारी जिले में नंबर वन पर हमारा बिजनेस था. हम उसकी अक्सर यात्रा निकालते थे जिसमें एक से डेढ़ लाख रुपये खर्च होते थे.
मैं उसका पूनम व्रत धारी बना था. जिसमें हर महीने पूणिमा के दिन उसके दर्शन करके पानी पीना होता था. मैं उसके दर्शन करके ही पानी पीता था, उस दिन भी उसे पैसों का लिफाफा अर्पित करता था. फिर मुझे गुरुकुल का पता चला तो बिटिया जब सातवीं क्लास में थी तो हमने उसे भर्ती करा दिया था. गुरुकुल में वो पांच साल रही, जब वो 12वीं में थी तब ही मुझे आसाराम का असली चेहरा पता चला. मेरी बेटी के साथ जो किया, उसके बाद मेरा जैसे चित्त फट गया. मेरे मन में लिपटा अंध विश्वास का जाल एकदम कट चुका था. मैंने पुलिस एफआईआर की और उसके बाद जो हमने सहा वो बहुत मुश्किल था. उसके भक्त हमारे खिलाफ हो गए थे. साथ उठने बैठने वाले भी हमारे लिए खड़े नहीं हो रहे थे. मगर मैंने अपना कदम पीछे नहीं हटाया, न ही मेरी बेटी एकदम डरी.
नायडू पहली बार 1995 में मुख्यमंत्री बने और उसके बाद दो और कार्यकाल पूरे किए. मुख्यमंत्री के रूप में उनके पहले दो कार्यकाल संयुक्त आंध्र प्रदेश के नेतृत्व में थे, जो 1995 में शुरू हुए और 2004 में समाप्त हुए. तीसरा कार्यकाल राज्य के विभाजन के बाद आया. 2014 में नायडू विभाजित आंध्र प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री के रूप में उभरे और 2019 तक इस पद पर रहे. वे 2019 का चुनाव हार गए और 2024 तक विपक्ष के नेता बने रहे.
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