दिल्ली की वो बस्ती जिसने दिए 10 नेशनल अवॉर्डी... इनके बिना अधूरी है हर घर की दिवाली
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दिल्ली के उत्तम नगर में एशिया की सबसे बड़ी कुम्हार कॉलोनी है. इस कॉलोनी में कुम्हारों के लगभग 1000 परिवार रहते हैं. जो दशकों से मिट्टी के बर्तन और साजोसामान बनाने के काम में जुटे हैं. इन परिवारों में 10 नेशनल अवॉर्ड विजेता भी हैं. ऐसे में हमने इस बस्ती में जाकर कुम्हारों से बात की और उनकी जिंदगी से जुड़े हर स्याह पक्ष को जानने की कोशिश की.
दिल्ली के इंडिया गेट से तकरीबन 25 किलोमीटर दूर उत्तम नगर की एक बस्ती में इन दिनों चहलकदमी बढ़ गई है. यहां का रुख कर रहे लोगों की एक बड़ी तादाद इस बात से अनजान है कि यह कोई आम कॉलोनी नहीं है. यहां हर घर के बाहर लगा मिट्टी का ढेर बेशक इस बात की गवाही देता है कि ये कुम्हार बस्ती (Potters Colony) है. लेकिन ये भी सच है कि इस बस्ती की उपलब्धियां कुम्हारों की परेशानियों के सामने बौनी पड़ने लगी हैं.
हमने कुम्हारों की इस कॉलोनी में सबसे पहले जिस मकान के भीतर कदम रखा. वह कालूराम का था. कालूराम के घर का पूरा अहाता मिट्टी के बर्तनों और साजोसामान से पटा पड़ा था. कालूराम सिर्फ 14 साल के थे, जब उनका परिवार राजस्थान के अलवर से यहां आकर बस गया. अब कालूराम की उम्र तकरीबन 65 साल है. लेकिन इन गुजरे सालों में उनके हाथ मिट्टी को गूंदकर चाक पर मटके और दीए बनाना ही जान पाए हैं.
उनसे बात शुरू हुई तो उन्होंने कहकर चौंका दिया कि आप इस वक्त एशिया की सबसे बड़ी कुम्हार बस्ती में खड़ी हैं. ये बस्ती बसी कैसे? इसकी कहानी बताते हुए वो कहते हैं कि 1960 के दशक में राजस्थान के अलवर में भयानक सूखा पड़ा था. सूखे की वजह से मिट्टी का पारंपरिक काम करने वाले कारीगरों ने दिल्ली का रुख करना शुरू किया. इसी बीच हरियाणा से भी कुम्हारों का पलायन हुआ. इस तरह ये कॉलोनी बस्ती चली गई.
कालूराम बताते हैं कि इस कुम्हार बस्ती में फिलहाल 1000 से अधिक परिवार रह रहे हैं जिनमें से तकरीबन 95 फीसदी परिवार मिट्टी की इस पारंपरिक कला से जुड़े हुए हैं. वो मुस्कुराते हुए कहते हैं कि ये हमारे बाप-दादाओं का पुश्तैनी काम है. पूरी जिंदगी मिट्टी में ही रहे हैं और एक दिन मिट्टी में ही मिल जाना है.
कालूराम के साथ उनका बेटा ताराचंद भी चाक पर बर्तन तैयार कर रहा है. उसके हाथ तेजी से चाक पर घूम रहे हैं. यह पूछने पर कि मिट्टी कहां से लाते हैं? ताराचंद झट से बोल पड़ते हैं कि हरियाणा से आती है. एक ट्रैक्टर ट्रॉली 7000 रुपये की है. महंगाई बढ़ रही है लेकिन कमाई नहीं बढ़ रही. पूरे साल दिवाली की बाट (इंतजार) जोहनी पड़ती है. ये पूछने पर कि कमाई नहीं है तो कुछ और करने का नहीं सोचा? इस पर ताराचंद कहते हैं कि कुछ और आता भी तो नहीं है. पिताजी को भी यही काम आता है, हमें भी यही सिखाया और हम अपने बच्चों को भी यही सिखाएंगे. बच्चे जिंदगी में ज्यादा पढ़-लिख नहीं पाए तो कम से कम कुम्हारी का काम करके दो वक्त का खाना जुटा लेंगे, भूखे मरने की नौबत नहीं आएगी.
सरकार से गिला-शिकवा के बारे में पूछने पर ताराचंद तपाक से जवाब देते हैं कि सरकार हमारी भी कुछ सुध ले. कम से कम इतना करवा दें कि स्कूलों में इस कला को पहुंचाया जाए. छुटपन से ही बच्चों को इस पारंपरिक कला से जोड़ा जाना चाहिए. स्कूलों में ऐसे आर्ट टीचर्स की भर्तियां होनी चाहिए जो बच्चों को मिट्टी की इस शिल्पकला से जोड़ने का काम करें. इससे रोजगार भी मिलेगा. कालूराम उनकी बात बीच में काटकर हंसते हुए कहते हैं कि राहुल गांधी एक बार म्हारी कॉलोनी में आ जावें. उन्हें भी चाक चलाना सिखा देवेंगे.
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