
केंद्र और राज्य सरकार के बीच होता रहता है टकराव... तो दिल्ली को क्यों बनाया गया ऐसा?
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राजधानी दिल्ली में केंद्र और राज्य सरकार के बीच का टकराव खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है. दिल्ली अध्यादेश को लेकर सुप्रीम कोर्ट में फिर केजरीवाल सरकार और केंद्र सरकार आमने-सामने हैं. दिल्ली पर दबदबे को लेकर केंद्र और राज्य सरकार के बीच लंबे समय से टकराव है. लेकिन सवाल उठता है कि आखिर 35 साल तक केंद्र शासित प्रदेश रही दिल्ली को राज्य बनाने की जरूरत क्यों आन पड़ी?
दिल्ली में केंद्र और राज्य सरकार के बीच शक्तियों के बंटवारे का मुद्दा हमेशा टकराव भरा रहा है. ये टकराव सड़क से लेकर संसद और अदालत तक होता है.
ये टकराव दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी की सरकार और केंद्र में बीजेपी सरकार आने के बाद और बढ़ता ही चला गया.
अब एक बार फिर टकराव का ये मुद्दा सुप्रीम कोर्ट में है. सुप्रीम कोर्ट में इस मुद्दे के जाने की वजह केंद्र सरकार का एक अध्यादेश है, जिसे वो मई में लेकर आई थी. ये अध्यादेश सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले को पलटने के लिए लाया गया था, जिसमें अदालत ने साफ कर दिया था कि दिल्ली की नौकरशाही पर चुनी हुई सरकार का ही नियंत्रण है. और अफसरों की ट्रांसफर-पोस्टिंग का अधिकार भी उसी को है.
सुप्रीम कोर्ट ने ये भी साफ कर दिया था कि जमीन, पुलिस और पब्लिक ऑर्डर को छोड़कर बाकी सभी दूसरे मसलों पर उपराज्यपाल को दिल्ली सरकार की सलाह माननी होगी. इसी फैसले के हफ्तेभर बाद केंद्र सरकार एक अध्यादेश लेकर आई, जिसने अधिकारियों की ट्रांसफर और पोस्टिंग से जुड़ा आखिरी फैसला लेने का हक फिर से उपराज्यपाल को दे दिया.
केजरीवाल सरकार ने इस अध्यादेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है. इस पर अब अदालत में गुरुवार को सुनवाई होनी है. लेकिन 20 जुलाई को संसद का मॉनसून सत्र शुरू हो रहा है, जिसमें इस अध्यादेश को पेश किया जाना है. दिल्ली पर नियंत्रण को लेकर केंद्र की बीजेपी और राज्य की आम आदमी पार्टी की सरकार के बीच मतभेद इतने हैं कि विपक्षी दलों की बैठक में भी अरविंद केजरीवाल इस मुद्दे को उठा चुके हैं.
दिल्ली में तीस साल पहले ही विधानसभा आई है. उससे तीस साल पहले ये केंद्र शासित प्रदेश हुआ करता था. जबकि, दिल्ली को तो अंग्रेजों के समय ही राजधानी बना दिया गया था. ऐसे में सवाल उठता है कि दिल्ली को राज्य बनाने की जरूरत क्यों पड़ी?

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