
रामचरितमानस: भरतजी का श्रीराम को वापस लाने के लिए वन को जाना
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रामचरितमानस: तुलसीदास द्वारा लिखी गई रामचरितमानस के आज उस भाग के बारे में जानेंगे जब भरतजी का श्रीराम को वापस लाने के लिए वन गए थे.
श्रीराम के वियोग में राजा दशरथ का निधन हो गया. भरतजी ने सारी प्रक्रिया की. मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठजी ने जहां जैसी आज्ञा दी, वहां भरतजी ने सब वैसा ही हजारों प्रकार से किया. शुद्ध हो जाने पर विधिपूर्वक सब दान दिए. गौएं तथा घोड़े, हाथी आदि अनेक प्रकार की सवारियां, सिंहासन, गहने, कपड़े, अन्न, पृथ्वी, धन और मकान भरतजी ने दिए. भूदेव ब्राह्मण दान पाकर परिपूर्णकाम हो गए (अर्थात् उनकी सारी मनोकामनाएं अच्छी तरह से पूरी हो गईं). पिताजी के लिए भरतजी ने जैसी करनी की वह लाखों मुखों से भी वर्णन नहीं की जा सकती. तब शुभ दिन शोधकर श्रेष्ठ मुनि वसिष्ठजी आए और उन्होंने मन्त्रियों तथा सब महाजनों को बुलवाया. सब लोग राजसभा में जाकर बैठ गए. तब मुनि ने भरतजी तथा शत्रुघ्नजी दोनों भाइयों को बुलवा भेजा. भरतजी को वसिष्ठजी ने अपने पास बैठा लिया और नीति तथा धर्म से भरे हुए वचन कहे. पहले तो कैकेयी ने जैसी कुटिल करनी की थी, श्रेष्ठ मुनि ने वह सारी कथा कही. फिर राजा के धर्मव्रत और सत्य की सराहना की, जिन्होंने शरीर त्यागकर प्रेम को निबाहा. श्रीरामचंद्रजी के गुण, शील और स्वभाव का वर्णन करते-करते तो मुनिराज के नेत्रों में जल भर आया और वे शरीर से पुलकित हो गए. फिर लक्ष्मणजी और सीताजी के प्रेम की बड़ाई करते हुए ज्ञानी मुनि शोक और स्नेह में मग्न हो गए. मुनिनाथ ने विलखकर (दुखी होकर) कहा- हे भरत! सुनो, होनी बड़ी बलवान है. हानि-लाभ, जीवन-मरण और यश-अपयश, ये सब विधाता के हाथ हैं.
ऐसा विचारकर किसे दोष दिया जाए? और व्यर्थ किसपर क्रोध किया जाए? हे तात! मन में विचार करो. राजा दशरथ सोच करने के योग्य नहीं हैं. सोच उस ब्राह्मण का करना चाहिए जो वेद नहीं जानता और जो अपना धर्म छोड़कर विषय-भोग में ही लीन रहता है. उस राजा का सोच करना चाहिए जो नीति नहीं जानता और जिसको प्रजा प्राणों के समान प्यारी नहीं है. उस वैश्य का सोच करना चाहिए जो धनवान होकर भी कंजूस है, और जो अतिथि सत्कार तथा शिवजीकी भक्ति करने में कुशल नहीं है. उस शूद्र का सोच करना चाहिए जो ब्राह्मणों का अपमान करने वाला, बहुत बोलने वाला, मान-बड़ाई चाहने वाला और ज्ञान का घमंड रखने वाला है. पुनः उस स्त्री का सोच करना चाहिए जो पति को छलनेवाली, कुटिल, कलहप्रिय और स्वेच्छाचारिणी है. उस ब्रह्मचारी का सोच करना चाहिए जो अपने ब्रह्मचर्य व्रत को छोड़ देता है और गुरु की आज्ञा के अनुसार नहीं चलता. उस गृहस्थ का सोच करना चाहिए जो मोहवश कर्ममार्ग का त्याग कर देता है; उस संन्यासी का सोच करना चाहिए जो दुनिया के प्रपंच में फंसा हुआ है और ज्ञान-वैराग्य से हीन है. वानप्रस्थ वही सोच करने योग्य है जिसको तपस्या छोड़कर भोग अच्छे लगते हैं. सोच उसका करना चाहिए जो चुगलखोर है, बिना ही कारण क्रोध करने वाला है तथा माता, पिता, गुरु एवं भाई-बन्धुओं के साथ विरोध रखने वाला है. सब प्रकार से उसका सोच करना चाहिए जो दूसरों का अनिष्ट करता है, अपने ही शरीर का पोषण करता है और बड़ा भारी निर्दयी है. और वह तो सभी प्रकार से सोच करने योग्य है जो छल छोड़कर हरि का भक्त नहीं होता.
कोसलराज दशरथजी सोच करने योग्य नहीं हैं, जिनका प्रभाव चौदहों लोकों में प्रकट है. हे भरत! तुम्हारे पिता-जैसा राजा तो न हुआ, न है और न अब होने का ही है. ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इन्द्र और दिक्पाल सभी दशरथजी के गुणों की कथाएं कहा करते हैं. हे तात! कहो, उनकी बड़ाई कोई किस प्रकार करेगा जिनके श्रीराम, लक्ष्मण, तुम और शत्रुघ्न-सरीखे पवित्र पुत्र हैं? राजा सब प्रकार से बड़भागी थे. उनके लिए विषाद करना व्यर्थ है. यह सुन और समझकर सोच त्याग दो और राजा की आज्ञा सिर चढ़ाकर तदनुसार करो. राजा ने राजपद तुमको दिया है. पिता का वचन तुम्हें सत्य करना चाहिए, जिन्होंने वचन के लिए ही श्रीरामचंद्रजी को त्याग दिया और रामविरह की अग्नि में अपने शरीर की आहुति दे दी. राजा को वचन प्रिय थे, प्राण प्रिय नहीं थे. इसलिए हे तात! पिता के वचनों को प्रमाण (सत्य) करो! राजा की आज्ञा सिर चढ़ाकर पालन करो, इसमें तुम्हारी सब तरह भलाई है. परशुरामजी ने पिता की आज्ञा रखी और माता को मार डाला; सब लोक इस बात के साक्षी हैं. राजा ययाति के पुत्र ने पिता को अपनी जवानी दे दी. पिता की आज्ञा पालन करने से उन्हें पाप और अपयश नहीं हुआ.
जो अनुचित और उचित का विचार छोड़कर पिता के वचनों का पालन करते हैं, वे यहां सुख और सुयश के पात्र होकर अन्त में इन्द्रपुरी (स्वर्ग) में निवास करते हैं. राजा का वचन अवश्य सत्य करो. शोक त्याग दो और प्रजा का पालन करो. ऐसा करने से स्वर्ग में राजा सन्तोष पावेंगे और तुमको पुण्य और सुंदर यश मिलेगा, दोष नहीं लगेगा. यह वेद में प्रसिद्ध है और स्मृति-पुराणादि सभी शास्त्रों के द्वारा सम्मत है कि पिता जिसको दे वही राजतिलक पाता है. इसलिए तुम राज्य करो, ग्लानि का त्याग कर दो. मेरे वचन को हित समझकर मानो. इस बात को सुनकर श्रीरामचंद्रजी और जानकीजी सुख पावेंगे और कोई पंडित इसे अनुचित नहीं कहेगा. कौसल्याजी आदि तुम्हारी सब माताएं भी प्रजा के सुख से सुखी होंगी. जो तुम्हारे और श्रीरामचंद्रजी के श्रेष्ठ सम्बन्ध को जान लेगा, वह सभी प्रकार से तुमसे भला मानेगा. श्रीरामचंद्रजी के लौट आने पर राज्य उन्हें सौंप देना और सुंदर स्नेह से उनकी सेवा करना. मन्त्री हाथ जोड़कर कह रहे हैं- गुरुजी की आज्ञा का अवश्य ही पालन कीजिए. श्रीरघुनाथजी के लौट आने पर जैसा उचित हो, तब फिर वैसा ही कीजिएगा. कौसल्याजी भी धीरज धरकर कह रही हैं- हे पुत्र! गुरुजी की आज्ञा पथ्यरूप है. उसका आदर करना चाहिए और हित मानकर उसका पालन करना चाहिए. काल की गति को जानकर विषाद का त्याग कर देना चाहिए. श्रीरघुनाथजी वन में हैं, महाराज स्वर्ग का राज्य करने चले गए. और हे तात! तुम इस प्रकार कातर हो रहे हो. हे पुत्र! कुटुम्ब, प्रजा, मन्त्री और सब माताओं के सबके एक तुम ही सहारे हो.
विधाता को प्रतिकूल और काल को कठोर देखकर धीरज धरो, माता तुम्हारी बलिहारी जाती है. गुरु की आज्ञा को सिर चढ़ाकर उसी के अनुसार कार्य करो और प्रजा का पालन कर कुटुम्बियों का दुख हरो. भरतजी ने गुरु के वचनों और मन्त्रियों के अभिनन्दन (अनुमोदन) को सुना, जो उनके हृदय के लिए मानो चन्दन के समान शीतल थे. फिर उन्होंने शील, स्नेह और सरलता के रस में सनी हुई माता कौसल्या की कोमल वाणी सुनी. सरलता के रस में सनी हुई माता की वाणी सुनकर भरतजी व्याकुल हो गए. उनके नेत्र-कमल जल (आंसू) बहाकर हृदय के विरहरूपी नवीन अंकुर को सींचने लगे. (नेत्रों के आंसुओं ने उनके वियोग-दुख को बहुत ही बढ़ाकर उन्हें अत्यंत व्याकुल कर दिया.) उनकी वह दशा देखकर उस समय सबको अपने शरीर की सुध भूल गई. तुलसीदास जी कहते हैं- स्वाभाविक प्रेम की सीमा श्रीभरतजी की सब लोग आदरपूर्वक सराहना करने लगे. धैर्य की धुरी को धारण करने वाले भरतजी धीरज धरकर, कमल के समान हाथों को जोड़कर, वचनों को मानो अमृत में डुबाकर सबको उचित उत्तर देने लगे- गुरुजी ने मुझे सुंदर उपदेश दिया. फिर प्रजा, मन्त्री आदि सभी को यही सम्मत है. माता ने भी उचित समझकर ही आज्ञा दी है और मैं भी अवश्य उसको सिर चढ़ाकर वैसा ही करना चाहता हूं.
गुरु, पिता, माता, स्वामी और सुहृद् (मित्र) की वाणी सुनकर प्रसन्न मन से उसे अच्छी समझकर करना (मानना) चाहिए. उचित-अनुचित का विचार करने से धर्म जाता है और सिर पर पाप का भार चढ़ता है. आप तो मुझे वही सरल शिक्षा दे रहे हैं, जिसके आचरण करने में मेरा भला हो. यद्यपि मैं इस बात को भलीभांति समझता हूं, तथापि मेरे हृदय को सन्तोष नहीं होता. अब आपलोग मेरी विनती सुन लीजिए और मेरी योग्यता के अनुसार मुझे शिक्षा दीजिए. मैं उत्तर दे रहा हूं, यह अपराध क्षमा कीजिए. साधु पुरुष दुखी मनुष्य के दोष-गुणों को नहीं गिनते. पिताजी स्वर्ग में हैं, श्रीसीतारामजी वन में हैं और मुझे आप राज्य करने के लिए कह रहे हैं. इसमें आप मेरा कल्याण समझते हैं या अपना कोई बड़ा काम होने की आशा रखते हैं? मेरा कल्याण तो सीतापति श्रीरामजी की चाकरी में है, सो उसे माता की कुटिलता ने छीन लिया. मैंने अपने मन में अनुमान करके देख लिया है कि दूसरे किसी उपाय से मेरा कल्याण नहीं है. यह शोक का समुदाय राज्य लक्ष्मण, श्रीरामचंद्रजी और सीताजी के चरणों को देखे बिना किस गिनती में है (इसका क्या मूल्य है)? जैसे कपड़ों के बिना गहनों का बोझ व्यर्थ है. वैराग्य के बिना ब्रह्मविचार व्यर्थ है. रोगी शरीर के लिए नाना प्रकार के भोग व्यर्थ हैं. श्रीहरि की भक्ति के बिना जप और योग व्यर्थ हैं. जीव के बिना सुंदर देह व्यर्थ है. वैसे ही श्रीरघुनाथजी के बिना मेरा सब कुछ व्यर्थ है.

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