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भागवत व धनखड़ के बोल: सवाल संविधान की सर्वोच्चता का है…

भागवत व धनखड़ के बोल: सवाल संविधान की सर्वोच्चता का है…

The Wire
Tuesday, January 17, 2023 05:11:33 PM UTC

संघ प्रमुख की मुसलमानों से अपना ‘श्रेष्ठताबोध’ छोड़ने को कहकर उनकी भारतीयता की शर्त तय करने की कोशिश हो या उपराष्ट्रपति की विधायिका का ‘श्रेष्ठताबोध’ जगाकर उसके व न्यायपालिका के बीच का संतुलन डगमगाने की, दोनों के निशाने पर देश का संविधान ही है.

क्या यह महज संयोग है कि आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत ने पहले हिंदुओं के एक हजार वर्ष से युद्ध में होने की बात कहते हुए हिंदुत्ववादी संगठनों की कट्टरताओं व उग्रताओं, दूसरे शब्दों में कहें तो हिंसाओं व आक्रामकताओं, को सही ठहराने के उस सिलसिले को, जो 2002 के गुजरात दंगों के वक्त से ही चला आ रहा है, नए सिरे से मजबूत किया। यह कहते हुए कि ‘पूर्वजों के पास वापस आना चाहते हैं, तो आएं’ मुसलमानों को कुछ इस अंदाज में अपने ‘श्रेष्ठताबोध’ से बाहर आने की सीख दी, जैसे न सिर्फ मुसलमानों बल्कि सारे गैर हिंदू समुदायों के देश (जो भागवत के अनुसार भारत से ज्यादा हिंदुस्तान है और इससे पहले वे मुसलमानों से अपने ‘स्वभाव’ में बदलाव की अपेक्षा भी कर चुके हैं.) में बिना भेदभाव, सबके बराबर व निर्भय होकर रहने की संवैधानिक गारंटी इस सीख को मानने की शर्त पर आधारित हो.

फिर उनके चहेते स्वयंसेवक उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने राजस्थान विधानसभा में पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन में न्यायपालिका, खासकर सर्वोच्च न्यायालय को खुला संदेश दे डाला है कि वह ‘न्यायिक हस्तक्षेप’ के रास्ते विधायिका, खासतौर पर संसद, की ‘संप्रभुता’ को कमजोर करने से बाज आए?

आप चाहते हैं तो बेशक अनुमान लगाते रह सकते हैं, लेकिन इस सच्चाई का क्या करेंगे कि अब बात ऐसे अनुमानों से बहुत आगे बढ़ चली है और आरएसएस का शीर्ष नेतृत्व हो या देश के शीर्ष संवैधानिक पदों पर आसीन उसके स्वयंसेवक, कोई भी इस तरह के प्रयोगों को लेकर संदेह या अंदाज़े की गुंजाइश रखने या उनके पीछे छिपने की जरूरत नहीं समझता.

देश की सत्ता का संचालन कर रहे उसके स्वयंसेवकों ने जब से देश को उस दिशा में हांकने में सफलता पा ली है, जिसे देखकर कई हलकों में कहा जाने लगा है कि अब तो किसी दिन ढोल-नगाड़े बजाकर ‘हिंदू राष्ट्र’ की घोषणा भर कर देना बाकी है (भागवत खुद भी कह चुके हैं कि भारत तो हिंदू राष्ट्र है ही और इसके लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है.) ‘सैंयां भये कोतवाल, अब डर काहे का’ की मानसिकता से भरे उसके सारे प्रयोग पूरी तरह पारदर्शी हो गए हैं- एकदम खुल्लमखुल्ला.

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