बिहार की जाति-जनगणना एक साहसिक क़दम है, जिसके प्रभाव राज्य से बाहर तक दिखाई देंगे
The Wire
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव का राज्य में जाति जनगणना करवाने का निर्णय 2024 के लोकसभा चुनावों के मद्देनज़र राष्ट्रीय राजनीति को बड़े स्तर पर प्रभावित करने का माद्दा रखता है.
नई दिल्ली: पिछले कुछ वर्षों में जाति-जनगणना की मांग लगातार बढ़ती ही गई है. मंडल आधारित पार्टियां इस अभियान के अग्रिम मोर्चे पर हैं और उन्होंने अक्सर अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी), अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के बीच भारतीय जनता पार्टी की लगातार बढ़ती लोकप्रियता का मुकाबला करने की कोशिश एक जाति अधारित जनगणना की मांग को मजबूती से उठा कर की है.
उनका तर्क है कि जाति आधारित जनगणना के जरिये जाति समूहों की वैज्ञानिक गिनती से न सिर्फ सरकारों को सामाजिक न्याय के उनके वादे को नया आकार देने में मदद मिलेगी, बल्कि यह विकास लक्ष्यों की संभावना को भी विस्तृत करेगी. इसके अलावा, यह आखिरकार समुचित नुमाइंदगी से महरूम जाति समूहों की मुख्यधारा की अर्थव्यवस्था तथा राजनीति में ज्यादा भागीदारी की राह भी तैयार करेगी.
लेकिन इस मांग के पीछे का हिसाब इससे कहीं ज्यादा है. राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि यह जाति आधारित अस्मितावादी राजनीति के अभ्यास को पुनर्परिभाषित करने के एक ताकतवर राजनीतिक औजार के तौर पर उभर सकता है.
1990 के दशक में उत्तर भारत में मंडल आधारित पार्टियां राजनीतिक मोर्चे पर अपनी दावेदारी पेश कर रहे ओबीसी समुदायों के समर्थन से एक राजनीतिक शक्ति बनकर उभरीं. बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद जब भाजपा देश की केंद्रीय शक्ति बनकर उभरती दिख रही थी, तब सामाजिक न्याय की बात करने वाली पार्टी के तौर पर उनके उभार ने भाजपा के रथ को रोकने का काम किया.