जोश मलीहाबादी: काम है मेरा तग़य्युर नाम है मेरा शबाब, मेरा नारा इंक़लाब ओ इंक़लाब…
The Wire
जन्मदिन विशेष: हर बड़े शायर की तरह जोश मलीहाबादी को लेकर विवाद भी हैं और सवाल भी, लेकिन इस कारण यह तो नहीं ही होना चाहिए था कि आलोचना अपना यह पहला कर्तव्य ही भूल जाए कि वह किसी शायर की शायरी को उसकी शख़्सियत और समय व काल की पृष्ठभूमि में पूरी ईमानदारी से जांचे.
और तो और, मलीहाबाद के लोग भी इस मुश्किल सवाल का सामना करने में झिझकते हैं. भले ही वे इस बात को लेकर जोश से अभी तक नाराज हैं कि विभाजन और आजादी के बाद के दस-ग्यारह साल हिंदुस्तान में गुजारने के बाद उन्हें जानें क्या सूझी कि यह कहकर पाकिस्तान चले गए कि ‘यहां’ उर्दू का कोई भविष्य नहीं है.
हालांकि ‘वहां’ जाकर भी वे न अपने लिए कुछ खास कर पाए, न उर्दू के लिए. न वहां उनकी शायरी को हिंदुस्तान जैसा जलवा नसीब हुआ, न कुछ नज्में और मरसिये छोड़ वे अपने खाते में कुछ और जोड़ पाए. इसके उलट चिंता और पीड़ा के बीच जैसे-तैसे उम्र बिताने के बाद जनरल जिया के सत्ताकाल में फरवरी, 1982 में इस्लामाबाद में अंतिम सांस ली और जनरल जिया ने उनके अंतिम संस्कार में शामिल होना भी जरूरी नहीं समझा तो कई भारतीयों द्वारा ही यह कहकर उन्हें शर्मिंदा किया गया कि ‘सदर साहब, अब कोई जोश से बड़ा आदमी तो आपके मुल्क की धरती पर दफ्न होने से रहा.’
उर्दू के प्रतिष्ठित आलोचक इकबाल हैदर की मानें, तो हिंदुस्तान ने जोश को ‘चले जाने’ को लेकर कभी माफ नहीं किया, तो पाकिस्तान ने ‘चले आने’ पर. फिर भी जोश को शायरों की अल्लामा इकबाल वाली पंक्ति में शामिल किया जाता है.