क्या ममता बनर्जी को अब एकला चलो रे के फैसले पर हो रहा होगा पछतावा?
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ममता बनर्जी के लिए अकेले लोकसभा चुुनाव लड़ने का फैसला दुस्साह
लोकसभा चुनाव के तीसरे चरण से पहले बंगाल में इंडिया गठबंधन के दलों के बीच जबदरदस्त सियासी युद्ध चल रहा है. चौथे चरण में मध्य पश्चिम बंगाल के चार निर्वाचन क्षेत्रों में मतदान होने वाला है. इंडिया गठबंधन की शुरूआती बैठकों में बढ़-चढ़ कर भाग लेने वाली ममता बनर्जी ने बाद में राज्य की कुल 42 सीटों से अपने प्रत्याशी खड़े करने का फैसला ले लिया था. उन्होंने चुनावी सहमति नहीं बना पाने के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराया था. अब उनके वही साथी दल उन पर जैसे हमले कर रहे हैं वो बीजेपी से भी खतरनाक हैं. वह भी जॉब स्कैम पर फैसला आने के बाद उनपर भ्रष्टाचार के आरोपों पर जैसे मुहर लग गई है. ऐसे समय में उनका साथ देने वाला अब कोई नहीं दिखाई दे रहा है. इंडिया गठबंधन के उनके साथी दल उनपर जमकर हमले कर रहे हैं. बनर्जी बार-बार इंडिया गठबंधन के अपने साथियों पर यह आरोप लगाती रही हैं कि पश्चिम बंगाल में वामपंथी दल और कांग्रेस भाजपा के लिए काम कर रहे हैं. अब अधीर रंजन चौधरी के नेतृत्व वाली कांग्रेस और मोहम्मद सलीम के नेतृत्व वाली सीपीआई (एम) भी मुख्यमंत्री और उनकी सरकार पर निशाना साधने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे हैं. उनके एकला चलो फैसले के चलते बंगाल की कई सीटों पर त्रिकोणीय संघर्ष दिखाई दे रहा है जो फाइनली बीजेपी को ही लाभ पहुंचाने वाला है.
मुस्लिम वोटर्स का बंटवारा
बंगाल में मुसलमानों का वोट बेहद अहम है. बंगाल में 30 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम मतदाता हैं. और करीब 16-17 लोकसभा सीटें ऐसी हैं, जहां वे निर्णायक भूमिका में हैं.पहले वाम मोर्चा ने मुस्लिम वोट बैंक के सहारे बंगाल में 34 साल तक राज किया अब तृणमूल के पीछे भी यही फोर्स है. पर बंगाल में इस बार माहौल बदला हुआ है. कोई कुछ बता नहीं सकता कि मुस्लिम वोट कहां जाएगा.ममता बनर्जी को लगता है कि मुसलमान इस बार भी उन्हीं का साथ देंगे पर कांग्रेस की न्याय यात्रा और वाम मोर्चे की सक्रियता के चलते उनके विश्वास को इस बार पलीता लग सकता है. वाममोर्चा के मुस्लिम वोट पाने के पीछे उनके भरोसे का कारण यह है पिछले नगर निकायों, पंचायत व विस उपचुनाव में पार्टी का अपेक्षाकृत अच्छा प्रदर्शन है. वाम दलों के इस अच्छे प्रदर्शन के पीछे मुस्लिम वोट का समर्थन ही है. कांग्रेस-वाममोर्चा में भी बंगाल में गठबंधन नहीं हो सका है, पर कुछ सीटों पर दोनों ने एक-दूसरे के खिलाफ प्रत्याशी नहीं उतारे हैं. लेकिन कुछ सीटें ऐसी भी हैं, जहां दोनों एक-दूसरे के खिलाफ ताल ठोंककर मैदान में हैं. जाहिर है कि इसका लाभ उठाने के लिए बीजेपी मौजूद है.
फुरफुरा शरीफ के पीरजादा अब्बास सिद्दीकी की पार्टी आईएसएफ भी तृणमूल का नुकसान करने के लिए तैयार बैठी है.आईएसएफ ने विधानसभा चुनावों में कांग्रेस व वाममोर्चा के गठबंधन में शामिल होकर एक सीट जीतने में सफल रही थी. जबकि कांग्रेस और वाम दलों को एक भी सीट नहीं मिली थी. भाजपा-विरोधी सभी दलों ने मुस्लिम प्रत्याशियों पर कैंडिडेट बनाने पर विशेष जोर दिया है. ममता ने बहरमपुर से पूर्व क्रिकेटर यूसुफ पठान के अलावा भी तृणमूल ने कई मुस्लिम प्रत्याशी उतारे हैं. कांग्रेस ने भी बंगाल में कई मुस्लिम प्रत्याशियों को टिकट दिया है, जिसमें बंगाल में युवा कांग्रेस के अध्यक्ष अजहर मलिक प्रमुख हैं. माकपा से सबसे प्रमुख मुस्लिम चेहरा तो खुद इसके राज्य अध्यक्ष मोहम्मद सलीम हैं, जो मुर्शिदाबाद से ताल ठोंक रहे हैं.
अकेले चुनाव लड़ना क्यों गलत फैसला था
ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल में अकेले चुनाव लड़ने का फैसला चाहे जो सोचकर किया था पर अब जो स्थितियां बन रहीं हैं वो उनके अनुकूल नहीं हैं. मालदा और मुर्शिदाबाद जिलों का ही उदाहरण ले लीजिए. दोनों जिलों में बड़ी संख्या में अल्पसंख्यक आबादी है जिनके वोट के लिए तृणमूल, वामपंथी और कांग्रेस नेतृत्व जी जान एक करके लगा हुआ है. भाजपा उम्मीद कर रही है कि मुस्लिम वोटों में विभाजन और मतदाताओं के ध्रुवीकरण से पार्टी को मदद मिलेगी.
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