तरुण तेजपाल फ़ैसला: जज के लिए महिला कटघरे में थीं, आरोपी नहीं
The Wire
तरुण तेजपाल को यौन उत्पीड़न के आरोपों से बरी करने का फ़ैसला पीड़ित महिलाओं को लेकर प्रचलित पूर्वाग्रहों की तस्दीक करता है. उचित संदेह के आधार पर हुई न्यायिक जांच से मिली बेगुनाही का विरोध कोई नहीं करता, पर इस बात पर ज़ोर देना चाहिए कि बलात्कार की सर्वाइवर्स को निष्पक्ष सुनवाई का अवसर ज़रूर मिले.
गोवा के मापुसा की अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश क्षमा एम. जोशी ने तहलका पत्रिका के पूर्व प्रधान संपादक तरुण तेजपाल को एक जूनियर महिला कर्मचारी से बलात्कार के आरोप से इस आधार पर बरी कर दिया कि अभियोजन पक्ष अपने मामले को उचित संदेह से परे साबित नहीं कर सका. तेजपाल के खिलाफ आईपीसी की धारा 342 (गलत तरीके से रोकना), 342 (गलत तरीके से बंधक बनाना), 354 (गरिमा भंग करने की मंशा से हमला या आपराधिक बल का प्रयोग करना), 354-ए (यौन उत्पीड़न), धारा 376 की उपधारा दो (फ) (पद का दुरुपयोग कर अधीनस्थ महिला से बलात्कार) और 376 (2) (क) (नियंत्रण कर सकने की स्थिति वाले व्यक्ति द्वारा बलात्कार) के तहत आरोप लगाए गए थे. सुनवाई आठ साल तक चली. सर्वाइवर को अपनी नौकरी छोड़नी पड़ी. महामारी के दौरान बेहद प्रतिकूल क्रॉस-एग्जामिनेशन के लिए उन्हें अलग शहर में जाना पड़ा. उनका इस सुनवाई का अनुभव किसी बुरे सपने सरीखा था. उनके साथ किसी पर्सिक्यूटर यानी उत्पीड़क के बतौर बर्ताव किया गया. यह संयोग नहीं है कि बलात्कार की शिकार महिलाओं के लिए इस्तेमाल होने वाले क़ानूनी शब्द ‘प्रॉसीक्यूटरिक्स’ [prosecutrix] शब्द का शाब्दिक अर्थ ‘सताने वाली महिला’ है. बलात्कार के मामलों की सुनवाई में अक्सर प्रॉसिक्यूशन (अभियोजन) और पर्सिक्यूशन (उत्पीड़क) का भेद मिट जाता है, जहां बलात्कार की सर्वाइवर से ऐसा व्यवहार किया जाता है जैसे वही अपराधी हो; और मामले की सुनवाई कोई पॉर्नोग्राफिक दृश्य. साल 2013 के आपराधिक कानून संशोधनों का उद्देश्य इसे बदलना था, लेकिन चौंकाने वाली बात है कि अदालतों के कामकाज में इसका बहुत कम ही प्रभाव पड़ा है.More Related News