क्या सेफ्टी की आड़ में बच्चों को माता-पिता से छीन रही हैं विदेशी सरकारें? क्या है बेबी अरिहा का केस, जिसपर मचा हंगामा
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विदेशों में गए भारतीय माता-पिता बच्चों को लेकर डरे रहते हैं. जरा चूक हुई नहीं कि चाइल्ड वेलफेयर कमेटी आकर बच्चे को अनाथालय जैसी किसी जगह में डाल देगी. इसके बाद कानूनी लड़ाई इतनी लंबी खिंचेगी कि बच्चा खुद ही पेरेंट्स से दूर हो जाएगा. जर्मनी में रहते हुए भारतीय दंपत्ति के साथ भी कुछ यही हुआ. उन्हें बच्ची वापस लौटाने के लिए सोशल मीडिया पर कई कैंपेन चल रहे हैं.
जर्मनी में रह रहे भारतीय कपल से उनका बच्चे को छीनकर फॉस्टर केयर में रख दिया गया. बेबी अरिहा शाह पिछले दो सालों से वहीं हैं. भारतीय पेरेंट्स अपनी बेटी को वापस पाने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन जर्मन सरकार इसके लिए राजी नहीं. उसका मानना है कि बच्ची के साथ यौन दुर्व्यवहार हुआ है. चाइल्ड प्रोटेक्शन को लेकर बहुत सख्त होने का दावा करते दूसरे देश कई बार मामूली मानवीय चूक भी नजरअंदाज नहीं कर पाते और बच्चे का बचपन छिन जाता है. बेहद चाइल्ड-फ्रेंडली देश नॉर्वे पर भी अक्सर ऐसा आरोप लगा.
क्या है बेबी अरिहा का मामला? बच्ची के पिता जर्मनी में इंजीनियर बतौर काम कर रहे हैं. लगभग 18 महीने पहले अरिहा के कपड़ों में खून लगा मिला. जर्मन प्रशासन ने माता-पिता पर बच्ची के यौन उत्पीड़न का आरोप लगाते हुए उसे कस्टडी में ले लिया. पेरेंट्स गुहार लगाते रहे कि उसे एक छोटे हादसे में चोट लगी, लेकिन बात सुनी नहीं गई. पिछले डेढ़ सालों से अरिहा फॉस्टर होम में है और 6 महीने और बीतते ही वो दोबारा कभी अपने माता-पिता के पास नहीं भेजी जा सकेगी. असल में वहां माना जाता है कि 2 साल फॉस्टर के माहौल में बिताने के बाद बच्चे दूसरे माहौल में एडजस्ट नहीं कर पाते. यानी अगर कुछ ही समय में बच्ची वापस नहीं लौटी तो भारतीय कपल को उसकी उम्मीद ही छोड़नी होगी.
बच्चों पर हिंसा के कितने मामले दुनियाभर में बच्चों पर हिंसा के मामले बढ़ते ही जा रहे हैं. साल 2020 में संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट आई, जिसमें दावा था कि दुनिया में कुल बच्चों की लगभग आधी आबादी हर साल शारीरिक-मानसिक और यौन हिंसा तक झेलती है. ‘ग्लोबल रिपोर्ट ऑन प्रिवेंटिंग वायलेंस अगेंस्ट चिल्ड्रन 2020’ का ये अध्ययन कुल 155 देशों में हुआ, जिसमें लगभग एक अरब बच्चों को एब्यूज का शिकार माना गया.
हिंसा रोकने के लिए हर देश अपनी तरह से कोशिश कर रहा है. यूरोपियन देशों में इसे रोकने के लिए सख्त कानून हैं. लेकिन इसका दूसरा पहलू भी है. ये कानून कई बार इतने कड़े हो जाते हैं कि बच्चों को लपककर उनके पेरेंट्स से अलग फॉस्टर केयर में डाल दिया जाता है.
अतिरिक्त सख्ती का आरोप लगता रहा नॉर्वे पर अक्सर ही इस क्रूरता के आरोप लगते रहे. वहां की चाइल्ड वेलफेयर एजेंसी को बेर्नवर्नेट कहते हैं, जिसका मतलब ही है बच्चों की सुरक्षा. एजेंसी को पूरे कानूनी हक हैं कि वो संदेह के आधार पर भी फैसला ले सके. जब भी एजेंसी को लगता है कि कोई माता-पिता बच्चे की अनदेखी कर रहे हैं, या उसके साथ किसी तरह की हिंसा हो रही है तो वो तुरंत एक्शन में आती है. किसी तरह का सवाल-जवाब या सफाई नहीं मांगी जाती, बल्कि बच्चे को तपाक से उठाकर फॉस्टर केयर या किसी वेलफेयर संस्था में भेज दिया जाता है. एशियाई देशों को छोड़कर यही कायदा ज्यादातर देशों में है, फिर नॉर्वे कटघरे में क्यों?
साल 2008 में एक मामले में मारपीट के चलते बच्चे की जान चली गई. इसके बाद बेर्नवर्नेट के नियम काफी कड़े हो गए. वो छोटी-सी चूक पर भी तुरंत फैसले लेने लगी. धीरे-धीरे बच्चे अपने घरों में कम, फॉस्टर केयर में ज्यादा दिखने लगे. अकेले साल 2014 में लगभग पौने 2 हजार बच्चों को उनके पेरेंट्स से अलग कर दिया गया. उनमें ज्यादातर बच्चे वे थे, जिनके माता-पिता नॉर्वे से नहीं थे. इनमें से भी काफी लोग भारतीय थे.
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