क्या रैगिंग करके खुशी मिलती है? मनोरोग विशेषज्ञ से जानिए इसके पीछे की मानसिकता
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रैगिंग करके जब किसी को मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है तो पीड़ित के मन में इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. इतने सख्त कानून और गाइडलाइंस के बावजूद तमाम कैंपस के छात्र रैगिंग की घटनाओं को झेल रहे हैं. विशेषज्ञ इसे एक अलग तरह की मानसिकता के तौर पर परिभाषित करते हैं, जानिए क्या है वो मानसिकता, क्या ये कभी बदलेगी.
रैगिंग पर कड़े कानून और यूजीसी की सख्त गाइडलाइंस के बावजूद ये समस्या क्यों नहीं रुक रही? आए दिन मीडिया में रैगिंग की खबरें अभी भी आ ही जाती हैं. संस्थानों में नये छात्रों के साथ उनके सीनियर जान-पहचान के लिए नहीं बल्कि उन्हें शारीरिक या मानसिक रूप से प्रताड़ित करने के लिए ये ज्यादा करते हैं. मनोवैज्ञानिक रैगिंग को एक विशेष तरह की मानसिकता से जोड़कर देखते हैं जिसमें किसी व्यक्ति को अपने से जूनियर या छोटे लोगों को सताकर सुख की अनुभूति होती है. ये मानसिकता कॉलेजों के कैंपस में ही नहीं बल्कि आम जिंदगी में भी काम करती है.
नये छात्रों में झुंझलाहट, नुकसान या भय पैदा करने के लिए दुनिया भर में रैगिंग प्रैक्टिस होती है. अगर रैगिंग के इतिहास की बात करें तो इसका पहला मामला 8वीं शताब्दी ईसा पूर्व में दर्ज हुआ था. जब ग्रीस में ओलंपिक के दौरान रैगिंग हुई थी. पीड़ितों के बीच रैगिंग अक्सर शारीरिक, व्यवहारिक, भावनात्मक और सामाजिक समस्याओं के व्यापक स्पेक्ट्रम से जुड़ा हुआ रूप है. यह कई बार पीड़ितों में आत्महत्या के रिस्क को बढ़ाता है.
सर गंगाराम अस्पताल दिल्ली के वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉ राजीव मेहता कहते हैं कि रैगिंग के पीछे की मानसिकता एक अलग तरीके का दंभीय आत्मसंतोष देता है. खुद को सीनियर मानने वाले छात्र जूनियर के सामने खुद को सुपीरियर और श्रेष्ठ दिखाने की कोशिश करते हैं. उनके सीनियर ने रैगिंग की थी, इसलिए वो इसे कई तर्कों से उचित ठहराकर सीनियर से भी खराब तरीकों से रैगिंग करके उनसे एक कदम आगे निकलने की छद्म होड़ दिखाते हैं.
वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉ सत्यकांत त्रिवेदी कहते हैं कि रैगिंग को बढ़ावा देने वाले अन्य कारकों में छात्रावासों में शराब या नशे का सेवन गंभीर रैगिंग विरोधी उपायों को चैलेंज करने की मानसिकता भी साथ साथ चलती है. कई लोग बचपन से अनुशासन को भले ही सामने फॉलो करते हैं, लेकिन मन से उसके खिलाफ जाकर मनमर्जी करने की लालसा रखते हैं. वहीं घरों में या आसपास के समाज में वो ऐसा माहौल देखते हैं जहां ताकतवर या बड़ा व्यक्ति छोटे को सताने की प्रवृत्ति रखता है. इसमें उन्हें दूसरे को सताकर खुशी की अनुभूति मिलती है. वो खुद को शासक और अपने जूनियर को शोषक की नजर से देखते हैं. इस मानसिकता को बचपन से ही बच्चों में हिंसा, जलन, श्रेष्ठताबोध में आकर गलत करने की आदतों को पहचानकर उन्हें सुधारना चाहिए.
रैगिंग रोकने के लिए ये हैं कॉलेजों के लिए जरूरी गाइडलाइंस
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