क्या एक फिल्म के पोस्टर से ‘आहत’ हुए लोगों की वास्तव में काली में आस्था है
The Wire
एक स्त्री निर्देशक जब काली की छवि को अपनी बात कहने के लिए चुनती है तो वह लैंगिक न्याय और स्वतंत्रता में उसकी आस्था का प्रतीक है. क्या इंटरनेट पर आग उगल रहे तमाम ‘आस्थावान’ स्त्री स्वतंत्रता के इस उन्मुक्त चित्रण से भयभीत हो गए हैं? या उन्हें काली की स्वतंत्रता के पक्ष में स्त्रियों का बोलना असहज कर रहा है?
‘तब अंबिका ने उन शत्रुओं के प्रति बड़ा क्रोध किया. उस समय क्रोध के कारण उनका मुख काला पड़ गया. ललाट में भौहें टेढ़ी हो गईं और वहां से तुरंत विकरालमुखी काली प्रकट हुईं, जो तलवार और पाश लिए हुई थीं. माला से विभूषित थीं. उनके शरीर का मांस सूख गया था, केवल हड्डियों का ढांचा था, जिससे वे अत्यंत भयंकर जान पड़ती थीं. उनका मुख बहुत विशाल था, जीभ लपलपाने के कारण वे और भी डरावनी प्रतीत होती थीं. उनकी आंखें भीतर को धंसी हुई और कुछ लाल थीं, वे अपनी भयंकर गर्जना से सम्पूर्ण दिशाओं को गुंजा रही थीं. बड़े-बड़े दैत्यों का वध करती हुई वे कालिका देवी बड़े वेग से दैत्यों की उस सेना पर टूट पड़ीं और उन सबको भक्षण करने लगीं.’
(श्रीदुर्गासप्तशती, सातवां अध्याय, श्लोक 5-9, गीताप्रेस गोरखपुर)
यह दुर्गासप्तशती में देवी काली के अवतरित होने का प्रसंग है. यह काली का वह सुपरिचित रूप और स्वभाव है जिसकी प्रतिमाएं प्रसिद्ध मंदिरों से लेकर गांव-देहात के काली स्थानों तक देखी जा सकती है. इनकी मौजूदगी के प्रमाण उत्तर मौर्य काल से मिलने लगते हैं. हाथ में कटा हुआ मस्तक, रक्त पीने का पात्र, और केवल नरमुंडों की माला पहने शिव की छाती पर खड़ी काली की छवि से आधुनिक हिंदुत्ववादियों की आस्था को गंभीर ख़तरा है.
उत्सुकता केवल यह है कि यदि उन्हें काली की इस चिर परिचित छवि से इतनी ही शिकायत है, फिर उनकी आस्था काली से जुड़ी ही कैसे हो सकती है? तब तो, प्रश्न यहां आस्था का नहीं आस्था के नाम पर राजनीतिक गोलबंदी का है.