
कोमा में जिंदगी या सुकूनभरी मौत? 13 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट में होगा हरीश राणा पर फैसला, रुला देगी ये दर्दनाक कहानी
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हरीश राणा 12 साल से कोमा में है. अब हरीश की जिंदगी और मौत का फैसला 13 जनवरी को देश की सबसे बड़ी अदालत में होगा. क्योंकि परिवार ने ही उसके लिए इच्छामृत्यु की मांग की थी. मेडिकल रिपोर्ट और मां-बाप की आखिरी सहमति पर टिके इस केस की पूरी कहानी.
Harish Rana Euthanasia Case: मौत के इंतजार में एक धीमी और तकलीफदेह जिंदगी या फिर एक सुकून और शांति भरी मौत. दुनिया की किसी भी अदालत के लिए ये फैसला लेना हर फैसले से मुश्किल है. लेकिन हालात अब इस मुश्किल फैसले को और ज्यादा टालने की इजाजत नहीं दे रहे. देश की सबसे बड़ी अदालत यानि सुप्रीम कोर्ट को 13 जनवरी की दोपहर 3 बजे एक फैसला लेना है. फैसला ये कि मौत की इंतजार में एक तकलीफदेह जिंदगी जी रहे एक नौजवान से उसकी सांसें छीन कर उसे एक सुकून भरी मौत दी जाए या नहीं.
दिल को कचोट देने वाला ये फैसला बेशक लेना सुप्रीम कोर्ट को है. लेकिन उस नौजवान के मां-बाप से पूछकर. इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने 13 जनवरी की दोपहर 3 बजे उस नौजवान के मां बाप से आखिरी बार उनकी मर्जी पूछने के लिए उन्हें सुप्रीम कोर्ट बुलाया है. मौत की आरजू और मौत के इंतजार पर 13 जनवरी की दोपहर 3 बजे आखिरी मुहर लगने जा रही है.
'उम्रे दराज़ मांग के लाए थे चार दिन दो आरज़ू में कट गए दो इंतज़ार में...' कैसी आरज़ू है ये और कैसा इंतज़ार. आरज़ू है कि मौत आ जाए और मौत है कि इंतज़ार करने को कह रही है. यानी आरज़ू मौत की. इंतज़ार मौत का. एक मां की आरज़ू है कि मौत उसके बेटे को गले लगा ले. इसी आरज़ू के साथ मां आंचल फैलाए अपने बेटे के लिए ऊपर वाले से हर रोज़ मौत मांग रही है. लेकिन ऊपर वाला उसकी सुन ही नहीं रहा है. ऊपर वाले से मायूस होकर वो मां अब अपनी उसी आरजू के साथ अदालत से फरियाद करती है. मगर अदालत भी उस मां की आरज़ू पूरी करने की बजाए उसे इंतज़ार करने को कहती है. इंतजार... मौत का.
12 साल से खामोश है वो और बस उसी आरज़ू और इंतज़ार के बीच इस घर की छत के नीचे ज़िंदगी और मौत के बीच कशमकश जारी है. एक ऐसी कशमकश जिसमें हर रोज़ ज़िंदगी और मौत के बीच जंग होती है और हर रोज़ ज़िंदगी जीत कर भी ये जंग हार जाती है. क्योंकि इस घर में रहने वाले लोग दुआ ज़िंदगी की नहीं मौत की मांगते हैं. ये हरीश है. और छह बाई चार का ये बिस्तर उसकी पूरी दुनिया. इतनी सी दुनिया होने के बावजूद हरीश पिछले 12 बरस से इस छोटी सी दुनिया तक को नहीं देख पाया है. क्य़ोंकि ना वो उठ सकता है. ना चल सकता है, ना करवट बदल सकता है, ना हंस सकता है ना रो सकता है, ना बोल सकता है ना खुद से खा सकता है ना पी सकता है यहां तक कि वो अपने दर्द और तकलीफ का इजहार तक नहीं कर सकता. बस यूं समझ लीजिए कि एक ज़िंदा लाश है. एक ऐसी ज़िंदा लाश जिसकी धड़कन तो है पर ज़िंदगी नहीं.
एक परिवार का बेइंतहा दर्द दिल्ली से सटे गाजियाबाद का एक अपार्टमेंट और उसी अपार्टमेंट की एक मंजिल पर है वो घर. तीन कमरों के उस घर में चार लोग रहते हैं. घर के मुखिया अशोक राणा, उनकी पत्नी निर्मला देवी और छोटा बेटा आशीष. घर के बाकी सभी कमरे आम घरों के कमरे जैसे ही हैं. लेकिन एक कमरा ऐसा है जो इस घर को हर घर से अलग कर देता है. उस कमरे में बिस्तर पर लेटा एक नौजवान. जिसका नाम है हरीश राणा. उम्र यही कोई 32-33 साल. कुछ ना भी कहूं, तो यकीनन इस हाल में हरीश को लेटे देख कर आप बहुत कछ अंदाजा लगा सकते हैं. लेकिन फिर भी आप दर्द की उस इंतेहा का अंदाजा नहीं लगा सकते, जो हरीश के साथ-साथ उसका पूरा परिवार पिछले 12 सालों से सह रहा है.
जिंदा लाश बन चुके हरीश की कहानी कायदे से हम आप जिस दुनिया में रहते हैं, वहां लाशों को घर में रखने की इजाजत नहीं होती. लेकिन जिंदगी और मौत के बीच की इस जिंदा मुर्दा लाश की कहानी ही कुछ ऐसी है कि ना इसे पूरी तरह जिंदा कहा जा सकता है और ना पूरी तरह मुर्दा. और बस इसी दुनियावी कायदे कानून के चक्कर में इस घर के इस कमरे में हरीश पिछले 12 सालों से इसी तरह बस यूं ही लेटा है.

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