आरएसएस आज चाहे जो भी कहे, सच यही है कि संघ देश की आज़ादी की लड़ाई का हिस्सा नहीं था
The Wire
स्वतंत्रता संग्राम के समय मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा दोनों ही कांग्रेस को अपने मुख्य दुश्मन के तौर पर देखते थे और अंग्रेज़ों के साथ दोस्ती करने के लिए तैयार थे- वे साथ ही साथ राष्ट्रवादी होने का दावा भी करते थे. हालांकि, एक मुस्लिम राष्ट्रवाद को आगे बढ़ा रहा था और दूसरा हिंदू राष्ट्रवाद को.
लाजिमी है कि भारत की आजादी की 75वीं साल पूरे होने के समय हमारा ध्यान उपनिवेशवादी शासन से आजादी के लिए लड़ी गई जबरदस्त लड़ाई की ओर जाए. ‘हम इस तथ्य से अपनी आंखें नहीं मूंद सकते हैं कि एक बड़ी संख्या में महासभा के सदस्यों ने इस त्रासदी पर खुशियां मनाई और मिठाइयां बांटीं…इसके अलावा महंत दिग्बिजॉय नाथ, प्रो. रामसिंह और देशपांडे जैसे महासभा के कई प्रवक्ता जिस उग्रपंथी सांप्रदायिकता, का उपदेश कुछ महीने पहले तक दे रहे थे, उसे नागरिक सुरक्षा के लिए खतरे के अलावा और कुछ नहीं माना जा सकता है. यही बात आरएसएस पर भी लागू होती है.’ (सरदार पटेल कॉरेस्पोंडेंस, खंड 6, पृ. 66)
हमारी आंखों के सामने जो मंजर खुलता है, उसमें शामिल हैं : 1857 का महान विद्रोह, दादाभाई नौरोजी और उनके समकालीनों-जिन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद की आर्थिक नींव रखी- द्वारा धन के विदोहन का सिद्धांत; भारत की आजादी की लड़ाई के मुख्यालय के तौर पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना; बंगाल, महाराष्ट्र और पंजाब में लोगों को सड़कों पर उतार देने वाला स्वदेशी आंदोलन; महात्मा गांधी के आगमन के साथ स्वतंत्रता संग्राम में आया नाटकीय मोड़, जालियांवाला बाग की दिल दहला देने वाली घटना, गुरु का बाग मोर्चा में अकाली जत्थों की अटल अहिंसा; बारदोली के किसानों की अडिग वीरता; नमक सत्याग्रह की नाफरमानी; दया की भीख मांगने से इनकार करनेवाले भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी पर पसरा मातम का सन्नाटा; भारत छोड़ो आंदोलन का ‘करो या मरो’ या नारा; आजाद हिंद फौज और लाल किले का मुकदमा; और 15 अगस्त 1947 की मध्य रात्रि को भारत का नियति के साथ साक्षात्कार.
तस्वीरों की इस बड़ी झांकी में उन लोगों का कोई नामोनिशान नहीं मिलता, जो आज पंचम स्वर में राष्ट्रवादी होने का दंभ भरते हैं. इस साफ दिखाई देने वाली अनुपस्थिति के बावजूद वे यह मानने के लिए रत्ती भर भी तैयार नहीं दिख रहे हैं कि जिस आजादी का उत्सव ‘घर-घर तिरंगा’ के तौर पर मनाया गया, वह उन लाखों-करोड़ों लोगों की उपलब्धि थी, जो वर्तमान निजाम के आदर्श से बिल्कुल अलग आदर्श से प्रेरित हुए थे.
न ही यह सब एक आत्ममंथन- आजादी की लड़ाई से अलग रहने की अतीत की गलतियों के स्वीकार, और एक सांप्रदायिक माहौल को बढ़ावा देने, जिसका नतीजा आखिरकार महात्मा गांधी की हत्या के तौर पर निकला, के पछतावे और/या उसकी भर्त्सना, या फिर आजादी के 52 सालों तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा तिरंगा झंडा फहराने से इनकार (आरएसएस ने झंडा तब जाकर फहराया जब 1998 में भाजपा के केंद्र में सत्ता में आने के बाद उसका ऐसा करना बेहद शर्मिंदगी का कारण नहीं बन गया)- के नतीजे के तौर पर हो रहा है.