आज भी ‘ज़ह्हाक’ की सल्तनत में सवाल जुर्म हैं…
The Wire
मोहम्मद हसन के नाटक ‘ज़ह्हाक’ में सत्ता के उस स्वरूप का खुला विरोध है जिसमें सेना, कलाकार, लेखक, पत्रकार, अदालतें और तमाम लोकतांत्रिक संस्थाएं सरकार की हिमायती हो जाया करती हैं. नाटक का सबसे बड़ा सवाल यही है कि मुल्क की मौजूदा सत्ता में ‘ज़ह्हाक’ कौन है? क्या हमें आज भी जवाब मालूम है?
टेक फॉग ऐप और पेगासस जैसे ख़ुफ़िया सरकारी हथकंडों के दौर में अगर ‘जाम-ए-जम’ अर्थात ‘जाम-ए-जमशेद’ की चर्चा की जाए तो जाने लोग-बाग क्या अर्थ निकालें. जज: हमारे क़ैदखाने क़ैदियों से भरे हुए हैं और उनमें ऐसे भी हैं जिन्हें मौत की सज़ा सुनाई जा चुकी है. ‘पूछने वालों की ज़बानें गुद्दी से खींच लो. शक करने वाले दिल उनके सीने से चीरकर निकाल लो. हमारी ममलिकत में सवाल जुर्म है. जिसकी सज़ा मिलनी चाहिए.’ ‘तुम में से किसी का भी क़द तलवार से लंबा नहीं है.’ ‘मैं इस तरह मरना चाहता हूं कि मेरे होंठों पर इनकार ज़िंदा रहे.’ ‘जहां भी ज़ह्हाक सिर उठाएगा फ़रीदूं का या उसके किसी मज़लूम भाई-बहन का हाथ भी ज़रूर उठेगा. इन लोगों के टांके काट दो आओ हम नए ज़ह्हाक की तलाश में चलें.’
इसके बावजूद कि साहित्य की अभिव्यक्ति अपने समय की सियासत को कई तरह से आत्मसात करती है. वज़ीर: हमें मालूम है मगर उनके भेजों से कितने दिन काम चल सकता है… ‘फौजी अफ़सर: वज़ीर-ए-आज़म मेरी तजवीज़ है कि ग़ैरज़रूरी लफ़्ज़ों के इस्तेमाल पर पाबंदी होनी चाहिए.’
बहरहाल, मुमकिन है कई लोग ‘जाम-ए-जम’ से अनजान हों तो उनके लिए दोहरा दूं कि जैसे भारतीय पौराणिक कथाओं में अविश्वसनीय चीज़ों का वर्णन मिलता है ठीक वैसे ही ये ईरान के राजा ‘जमशेद’ का क़िस्सा है कि उसके पास एक जादुई प्याला था जिसमें वो अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ हर चीज़ का नज़ारा कर सकता था. जज: अदालत आपकी ग़ुलाम है. ‘वज़ीर-ए-आज़म: ज़माने के सभी लफ़्ज़ों के मानी बदलने पड़ेंगे ताकि मेरे मोहसिन शहंशाह को क़ातिल न कहा जाए.’
एक तरह से ‘जाम-ए-जम’ की शक्ल में जमशेद के पास अपनी सत्ता को ‘सुरक्षित’ रखने का हथियार था. बताया जाता है कि उसके राज्य में ख़ुशहाली थी, लेकिन एक समय आया कि उसके घमंड और अहंकार ने ‘मैं ही ख़ुदा हूं’ के अंदाज़ में ऐलान कर दिया कि दुनिया में उसके सिवा कोई राजा नहीं है. वज़ीर: नहीं, हम क़ानून को अपने हाथ में लेना नहीं चाहते हैं. हम क़ानून की इज्ज़त करते हैं. क़ानून इक्तिदार (सत्ता) के हाथ का खिलौना नहीं है. क़ानून से कोई भी बुलंद नहीं है सिर्फ़ मुल्क क़ानून से बुलंद है. और एक मुल्क की इज्ज़त की खातिर… ‘मुझे सवालों से कोई दिलचस्पी नहीं है.’