‘असद बज़्मे-तमाशा में, तग़ाफ़ुल पर्दादारी है’
The Wire
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: ग़ालिब ने अपनी शायरी का आलम घर, आग, तमाशे, ग़मेहस्ती, नाउम्मीदी, तमन्ना, बियाबान और उरियानी से रचा-गढ़ा. दिगंबरता को याने उरियानी को उनके यहां जैसे बरता गया है वह पश्चिमी न्यूडिटी की अवधारणा से बिल्कुल अलग है.
इसकी बेजा शिकायत नहीं कर सकता कि मुझे बहुत लेखक-बंधओं का संग-साथ नहीं मिला क्योंकि बहुत मिला, भले उसका एक सुखद कारण यह भी रहा है कि मैंने जैसा सार्वजनिक जीवन जिया उसका एक बड़ा हिस्सा ऐसे संग-साथ को अनिवार्य बनाने का रहा है. ‘… विनोद जी हर स्तर पर अपनी कविताओं और गद्य में अदम्य रूप से घर-पड़ोस-संसार से आसक्ति के कवि हैं: एक गृहस्थ कवि जो मंगल ग्रह से भी अपने घर को देखना चाहता है. उनके यहां ब्रह्मांड घर-पड़ोस में ही शामिल है: वे नदी-पर्वत-प्रकृति-ब्रह्मांड आदि सबको अपने घर-पड़ोस में शामिल करना चाहते हैं: बल्कि शामिल करके ही देख-समझ पाते हैं. उनकी कविता और मनुष्यता एक तरह का शामिलात खाता है. वे यों ही नहीं कहते कि ‘इस अते-पते और बेठिकानों से भरे संसार में कहीं एक पत्ता बनने से पहले रहकर/रहते रहने का मन/इस समय पृथ्वी में निवास करना है’. वे अपने मोहल्ले और पृथ्वी के एक साथ निवासी हैं, जैसे हम सब भी हैं, लेकिन कविता में यह इस तरह पहले विन्यस्त नहीं किया गया है.’
कई पीढ़ियों के लेखकों से लगातार संवादरत रहा हूं और उनमें से शायद कुछ कई बार मेरी बतकही में अनमने भाव से भी शामिल हुए हैं. फिर भी, इस संग-साथ ने मुझे बहुत समृद्ध किया है, इसमें संदेह नहीं, न सिर्फ साहित्यिक स्तर पर बल्कि मानवीय स्तर पर भी. अगर ऐसा संग-साथ न मिला होता तो शायद जीवन बहुत कुछ आधा-अधूरा और विपन्न, लगभग निरर्थक हुआ होता. इसलिए इस लंबे संग-साथ के लिए मेरे मन में गहरी कृतज्ञता है.
लेकिन, दूसरी ओर, यह भी सही है कि अपने कई हमउम्रों के साथ वैसा नियमित संपर्क नहीं हो पाया जैसा मुझे ज़रूरी लगता था और है. नरेश सक्सेना तो स्वयं संग-साथ में रत व्यक्ति हैं तो उनसे फ़ोन पर अक्सर बातचीत हो जाती है. विनोद कुमार शुक्ल का स्वभाव शुरू से ही कम बोलने और ज़्यादातर सुनने का रहा है. वे चिट्ठियां भी कम ही लिखते हैं. तो उनसे मिलना-जुलना तो होता रहा है पर संग-साथ नहीं. फ़ोन पर भी उन्हें कर तंग नहीं करना चाहता क्योंकि उनके यहां साहित्य से अलग जो व्यावहारिक जीवन है उसमें ‘वागर्थ की अल्पता’ की ही प्रमुखता है.
ऋतुराज मेरी सार्वजनिक सक्रियता से थोड़ी दूर ही रहे हैं और उनसे कोई विशेष संवाद कभी नहीं हो पाया. उनकी वैचारिक निष्ठा भी शायद सख़्त है, अपने प्रति और मेरे प्रति भी. इधर दो पत्रिकाओं ‘कथादेश’ और ‘अंतिका’ ने क्रमशः मेरे इन दो हमउम्रों विनोद कुमार शुक्ल और ऋतुराज पर, विशेषांक प्रकाशित किए हैं. इस बहाने उन दोनों पर कुछ लिखने-सोचने का सुयोग बना.