
अलग-अलग धर्मों के पड़ोसी होने पर क्या सोचते हैं लोग? शहरों में 70 फीसदी लोग धार्मिक विविधता से सहज
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उत्तराखंड और मध्य प्रदेश में पुरुष और महिलाओं की ओर से इस सवाल के जो जवाब मिले, वह कुछ-कुछ असहिष्णुता की ओर इशारा कर रहे थे. इन राज्यों में लोग विभिन्न धार्मिक समुदायों के साथ रहने को लेकर असहज हैं. वहीं, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्य भी इस मामले में अपेक्षाकृत उदार रहे.
इंडिया टुडे के 'ग्रॉस डोमेस्टिक बिहेवियर' सर्वे में कई खास बातें सामने आई हैं. लोगों का अपने आस-पड़ोस के प्रति क्या रवैया है और वह इसके लिए कैसी सोच रखते हैं, व्यवहार को आंकने के लिए ये सवाल प्रमुख जरिया बना. GDB सर्वे में यह सवाल उठाया गया कि, क्या लोग अलग-अलग धर्मों के पड़ोसियों के साथ रहने में सहज हैं. इस सवाल को लेकर जो उत्तर मिले हैं वह थोड़े हैरान करने वाले हैं.
ग्रामीण क्षेत्रों में 70 फीसद और शहरी क्षेत्रों में 62 फीसद लोग इसके पक्ष में दिखे. यानी वह पड़ोसियों में विविधता से सजग हैं. पुरुष और महिलाएं इस मामले में लगभग समान रूप से उदार ही नजर आए. यह नतीजा इसलिए भी चौंकाने वाला है. ऐसा इसलिए क्योंकि अकसर यह देखने में आता है कि बहुसंख्यक बहुल क्षेत्रों में अल्पसंख्यकों को घर न मिलने की बातें सामने आती हैं. हालांकि, राज्यवार सोच में बड़ा अंतर देखने को मिला.
उत्तराखंड और मध्य प्रदेश में पुरुष और महिलाओं की ओर से इस सवाल के जो जवाब मिले, वह कुछ-कुछ असहिष्णुता की ओर इशारा कर रहे थे. इन राज्यों में लोग विभिन्न धार्मिक समुदायों के साथ रहने को लेकर असहज हैं. वहीं, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्य भी इस मामले में अपेक्षाकृत उदार रहे. हरियाणा की उदारता शायद कम अल्पसंख्यक आबादी से जुड़ी हो, जबकि उत्तर प्रदेश में श्रमिकों की बड़ी संख्या के बावजूद सहिष्णुता दिखी.
सर्वे में यह भी पाया गया कि देश को विंध्य के उत्तर और दक्षिण में बांटकर समझने का पारंपरिक तरीका अब पुराना पड़ चुका है. सूचकांक में केरल, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र शीर्ष पर रहे, जो दर्शाता है कि उदारता देश के हर हिस्से में मौजूद है. दूसरी ओर, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड जैसे राज्य पुरानी बीमारू छवि से बाहर नहीं निकल सके. यह सर्वे भले ही सीमित नमूने पर आधारित है, लेकिन यह संकेत देता है कि सामुदायिक जीवन में जाति और धर्म आधारित भेदभाव कम हो रहा है. फिर भी, कुछ राज्यों में असहिष्णुता की जड़ें गहरी हैं, जो सामाजिक एकता के लिए चुनौती बनी हुई हैं. यह नतीजे बदलते भारत की एक आंशिक तस्वीर पेश करते हैं.

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