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Ground Report: मजबूरी में अपना एग बेचने निकली उस महिला की कहानी, जो बन गई सरोगेट सेंटर की कर्ता-धर्ता...

Ground Report: मजबूरी में अपना एग बेचने निकली उस महिला की कहानी, जो बन गई सरोगेट सेंटर की कर्ता-धर्ता...

AajTak
Sunday, July 28, 2024 04:41:30 AM UTC

कमर्शियल सरोगेसी पर पाबंदी लगने से पहले दिल्ली-एनसीआर में ढेरों ऐसी इमारतें थीं, जहां सिर्फ प्रेग्नेंट औरतें नजर आतीं. ये सरोगेसी होम थे. वो ठिकाने, जहां प्रेग्नेंसी से लेकर डिलीवरी तक सरोगेट्स रखी जातीं. इस जगह को चलाने वाली आमतौर पर कोई महिला होती, जो एजेंट्स और हॉस्पिटल के बीच की कड़ी होती. सरोगेट्स से डील करना उसका ही काम था.

लाजपत नगर में लगभग डेढ़ दशक तक सरोगेसी सेंटर चला चुकी मीना ने कोविड से पहले ही होम बंद कर दिया. यही वो समय था, जब एक्ट कड़ाई से लागू हुआ था. कई बार फोन करने पर वे राजी हुईं लेकिन मिलते ही आश्वासन मांगा- मेरे साथ कुछ गलत तो नहीं होगा. हम तो ये काम तब तक कर रहे थे, जब सरोगेसी वैध थी. काफी तोल-मोल के बाद इस बात पर बात बढ़ी कि वीडियो इंटरव्यू कर तो लूं लेकिन रिस्क दिखे तो चेहरा हटा दूं. मेरा पहला और स्वाभाविक सवाल था कि सरोगेसी होम चलाने का आइडिया कैसे आया? जवाब में उन्होंने पूरी कहानी विस्तार से बताई.  ‘आज से कुछ 20 साल पीछे की बात होगी. पहले पति चले गए. दो बच्चे थे. मैं दूसरे स्टेट से हूं. दिल्ली पति के भरोसे ही आई थी. न पढ़ाई-न नौकरी. कमरे का किराया भी नहीं दे पा रही थी, तभी एक पड़ोसन ने कहा- तुम्हें पता है, यहां एक दुकान में लेडीज लोगों का अंडा बिकता है’.   ‘मैं हैरान थी कि ये क्या होता है. लेकिन जरूरत इतनी कि कोई खून बेचने कहता तो वो भी कर देती. वही औरत मुझे अंडे वाली दुकान पर लेकर गई.

वहां कोई मिले, जिन्होंने सब बताया कि पैर में ऊपर की तरफ इंजेक्शन लगेगा. फिर 15 दिन बाद अंडे निकाल लेंगे. बदले में 20 हजार मिलेंगे’.    ‘मुझे डर लगा कि कुछ गलत न हो जाए इंजेक्शन लगने पर. छोटे बच्चों को कौन पालता. मेरा डर देखकर उस बंदे ने कहा कि आप किसी और को लेकर आ जाइए. उसका देखिए. फिर ठीक लगे तो खुद भी कीजिए. किसी को लाने के भी आपको पैसे मिलेंगे. कितने? 5 हजार’. 

  ‘मैंने तुरंत अपने उधर की औरतों को खोजना शुरू किया. पहली को लेकर गई. थोड़े दिनों बाद कहा गया कि फलां तारीख को उसे साथ ले आना, पिकअप है. तब जाना कि अंडे निकालने को पिकअप बोलते हैं. वो औरत बिल्कुल ठीक रही. उसे तो पैसे मिले ही, मुझे भी मिले. इसके बाद से मैं औरतें ले जाने लगी’.    ‘धीरे-धीरे मैं दुकान वाले भैया को छोड़कर सीधे अस्पताल तक जाने लगी. वो लोग रेट बहुत ज्यादा दे रहे थे. मेरी पूछ भी बढ़ रही थी. वहीं एक दिन सरोगेसी का पता लगा. खुद डॉक्टर ने सब समझाया. मैंने फिर एक औरत खोजी. लंबी-तगड़ी. आईवीएफ के बाद सरोगेट अपने घर चली जाती, या क्लाइंट पैसे वाले हों तो उसके साथ चली जाती. लेकिन फिर मिसकैरेज के केस बढ़े तो एक बढ़िया डॉक्टर ने ही सजेक्ट किया कि तुम अपना खुद का सरोगेसी होम बना लो. औरतों को साढ़े नौ महीने वहीं रखना. उसके अलग पैसे मिलेंगे’.    ‘तब मैंने छोटा कमरा लिया. आखिर-आखिर में मेरे पास नौ कमरों का तीन फ्लोर था. हर रूम में तीन सरोगेट्स रहतीं. होम हमेशा फुल रहता’.कभी बुरा नहीं लगा कि गरीब औरतों की मजबूरी से कमा रही हैं?  ‘बुरा क्यों लगेगा. हम तो नेकी कर रहे थे. गरीब स्टेट्स को देखिए. दिल्ली में लोग घी लगी रोटी खा रहे हैं. वहां गोबर में से दाने निकालकर पेट भरते हैं. यहां के लोग जो खाते हैं, वहां किसी को पता तक नहीं. सारी सरोगेट्स को यहीं आकर पिज्जा-बर्गर का पता लगा, वो भी क्लाइंट खुद उन्हें खिलाने लाते थे’.    ‘कइयों का अब भी फोन आता है कि दीदी करवा दो, हमें पैसों की जरूरत है. कई लोग हैं, पैसेवाले लेकिन बेऔलाद. वे कॉल करते हैं. लेकिन मैं सबको मना कर देती हूं’.   लेकिन बहुत लोग इललीगल होने पर भी कर तो रहे हैं?  ‘हां. कर तो रहे हैं, लेकिन मैं इस सबमें नहीं फंसना चाहती. कोर्ट का चक्कर नहीं लगा सकती’. 

 आपको लड़कियां कैसे मिलती थीं?  ‘पहले तो डॉक्टर हमें कॉन्टैक्ट करते थे कि फलां जरूरत है. साथ में एजेंट भी हमसे जुड़ा रहता था. वही लाता था लड़कियां. बिहार, बंगाल, झारखंड से ज्यादा आती थीं. लेकिन हम पक्का कर लेते थे कि वो शादीशुदा हो, बाल-बच्चे हों और पति की रजामंदी हो. तभी आगे बढ़ते थे’.   एक सरोगेसी लाने पर आपको और उसे कितने मिलते थे?  ‘ये अक्सर डॉक्टर ही तय करते थे. हमें पैकेज मिलता था 50 हजार का. इसके अलावा घर के किराए और खाने-पीने के लिए पैसे भी क्लाइंट ही देता. बाकी 5 से 7 लाख तक सरोगेट को मिल जाते थे’.   आपका काम क्या था?  ‘हम सरोगेट्स पर नजर रखते कि वे सारे नियम मान रही हैं कि नहीं. समय पर दवाएं खाना. कई बार कुछ सरोगेट्स अपने परिवार से दूर रहने पर डिप्रेशन में भी चली जातीं. इसका होने वाले बच्चे पर असर हो सकता है. तो हम उन्हें समझाते. रोज शाम को मिलने जाती थी मैं उनसे’.   क्या भावी पेरेंट्स किसी खास किस्म की सरोगेट की डिमांड भी करते थे?  ‘हां. शुरू-शुरू में होता था. वे बोलते कि रंग साफ चाहिए, हाइट बढ़िया हो. इंग्लिश बोलने वाली हो ताकि बच्चा भी वो भाषा सुनता रहे. कास्ट को लेकर भी काफी किचकिच करते. किसी को नॉनवेज वाली नहीं चाहिए थी, किसी को वही. लेकिन ये पुरानी बात है. फिर लोग समझने लगे कि बच्चा मां-बाप पर ही जाएगा, पेट में रखने वाली पर नहीं’. 

 कभी ऐसा हुआ कि किसी सरोगेट को बच्चे से लगाव हो गया हो?  ‘हां, होने का डर तो रहता ही था. लेकिन हम उनसे कॉन्ट्रैक्ट में पहले ही लिखवा लेते थे कि डिलीवरी के बाद बच्चा उन्हें देखने को नहीं मिलेगा. कई लोग दूध पिलाने की जिद करते, लेकिन अस्पताल वाले खुद बॉटल मिल्क की ट्रेनिंग दे देते ताकि ये सब हो ही नहीं. वैसे भी हम सरोगेट का एग कभी नहीं लेते. बाहर का डोनर होता है, जिसके बारे में किसी को कुछ पता नहीं होता’.   सरोगेट्स कभी परेशान नहीं हुईं नौ महीनों में?  ‘क्या बात करती हैं. मेरे सेंटर पर सब दुबली-सूखी आती थीं और गोरी-चिट्टी होकर लौटतीं. किसी को कभी उतना आराम और किस्म-किस्म का खाना नहीं मिला होगा. हां, लेकिन अंदर क्या चलता है, ये क्या कहें’!  पैसे किस तरह मिलते थे ऐसी महिलाओं को?  ‘जिस दिन ईटी (एंब्रियो ट्रांसपर होता) है, पैसे उसी दिन से काउंट होने लगते हैं. कई लोग महीने के महीने पैसे चाहते तब आखिर में उन्हें कम पैसे मिल पाते हैं. कई लोग एकमुश्त ही पैसे मांगते. लेकिन ज्यादातर लोग महीने में 10 से 15 हजार लेते हैं. बाकी डिलीवरी के बाद मिलता है’.   कभी कोई लीगल दिक्कत हुई इतने साल में आपको?  ‘जब मैं करती थी, तब तो सरोगेसी कानून में थी. लेकिन तब भी कुछ न कुछ लगा रहता. जैसे एक बार बच्चे को बर्थ डिफेक्ट निकला तो पेरेंट्स ने उसे लेने से मना कर दिया. यहां तक कि पैसे देने को भी तैयार नहीं थे. बच्चा कई दिन अस्पताल में पड़ा रहा. कई बार पेरेंट्स की आपस में नहीं बनती और वे बच्चे को भी नहीं अपनाना चाहते. लेकिन ऐसे में हम क्या करें. हमारी सरोगेट ने तो इतने महीने उसे पेट में रख लिया है, उसे तो पैसे देने होंगे. फिर कोर्ट में बात जाती थी’. 

 पैसों के बदले सरोगेसी पर पाबंदी भले लग चुकी, लेकिन काम हो ही रहा है, जिसमें दलाल से लेकर अस्पताल सब शामिल हैं. इसे रोकने की बजाए ज्यादा पारदर्शी बनाने को लेकर भी कुछ तर्क आए.   सरोगेसी बोर्ड के मेंबर डॉ. नितिज मुर्डिया जो कि इंदिरा आईवीएफ के एमडी भी हैं, कहते हैं- मौजूदा सरोगेसी एक्ट में केवल अलट्रूइस्टिक सरोगेसी की इजाजत है, यानी सरोगेट मां को मेडिकल खर्च और इंश्योरेंस के अलावा किसी तरह का कोई खर्च, फीस नहीं मिलनी चाहिए. कमर्शियल सरोगेसी पर बैन उन कपल्स और सिंगल पेरेंट्स के लिए चुनौती है जो मेडिकल कारणों से संतान पैदा नहीं कर पा रहे.  अभी कपल को जिला मेडिकल बोर्ड के सामने साबित करना होता है कि पति-पत्नी में से एक प्रेग्नेंसी के लिए मेडिकली फिट नहीं. ऐसे जोड़े इंटरनेशनल सरोगेसी या अडॉप्शन की तरफ जा सकते हैं लेकिन उसकी कीमत बहुत ज्यादा है. एक्ट में कई और भी काफी सख्त पैमाने और डॉक्युमेंटेशन हैं, जिसे समझने के लिए वकील तक की जरूरत पड़ जाती है. ऐसे में माता-पिता बनने के इच्छुक लोगों को काफी मुश्किलें झेलनी पड़ती हैं अगर वे सरोगेसी का रास्ता चुनना चाहें.    सरोगेसी पर कानूनी कड़ाई पर दिल्ली में कड़कड़डूमा कोर्ट की वकील प्रियंका भदौरिया कहती हैं- कमर्शियल सरोगेसी पर बैन तो लग गया लेकिन इसे साबित करना मुश्किल है. मान लीजिए, आप फिल्म देखने जाएं और टिकट न मिलने पर ब्लैक में खरीद लें. टिकट असल होकर भी होगी तो ब्लैक ही. ऐसा ही हाल सरोगेसी में है. क्लीनिक, दलाल, जरूरतमंद महिला और बच्चे की चाह में परेशान कपल किसी न किसी तरह मिलकर इसे छिपा ही लेंगे. यहां भ्रूण परीक्षण गैरकानूनी है लेकिन लोग करवा ही लेते हैं.  सरकार ने अपनी तरफ से बढ़िया नियम बनाया लेकिन इसे तोड़ने के लिए और तगड़ा नेटवर्क बन गया.  कमर्शियल सरोगेसी पर पूरी तरह पाबंदी लगाने की बजाए ये किया जा सकता है कि सरकार खुद इसके लिए रजिस्ट्रेशन करे, जैसे ऑर्गन डोनेशन में होता है. जरूरतमंद कपल भी रजिस्टर हों और जो सरोगेट बनना चाहती हैं, वे भी. जैसे-जैसे जिसका नंबर आए, उसे सरोगेट अलॉट होती जाएं. साथ ही बदले में सरकार सरोगेट को कोई छूट दे, जैसे अस्पताल या स्कूल में कोई सुविधा. जिस कपल की वो मदद कर रही हैं, वो भी एक तयशुदा अमाउंट दे. इससे दलालों की भूमिका भी खत्म हो जाएगी. वरना जिस तरह से इनफर्टिलिटी बढ़ रही है, सरोगेसी रुक नहीं सकेगी.

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