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1971: जब इंदिरा गांधी ने एक संयुक्त विपक्ष को हराया और सामंती ताक़तों को ख़त्म किया…

1971: जब इंदिरा गांधी ने एक संयुक्त विपक्ष को हराया और सामंती ताक़तों को ख़त्म किया…

The Wire
Saturday, April 24, 2021 01:58:11 AM UTC

'ग़रीबी हटाओ' के नारे के साथ उस साल इंदिरा की जीत ने कांग्रेस को नई ऊर्जा से भर दिया था. 1971 एक ऐतिहासिक बिंदु था क्योंकि इंदिरा गांधी ने लक्ष्य और दिशा का एक बोध जगाकर सरकार की संस्था में नागरिकों के विश्वास की बहाली का काम किया.

भारतीय इतिहास के कैलेंडर में 1971 के नाम कई बड़ी जीतें दर्ज हुईं- सियासत हो, क्रिकेट या फिर जंग. भारत के लिए इन सबका दूरगामी नतीजा निकलनेवाला था. भले ही भारत घरेलू मोर्चे पर कई समस्याओं से जूझ रहा था, लेकिन फिर भी देश एक नई उमंग से भरा हुआ था. ‘कांग्रेस सत्ता में वापसी करेगी, कम से कम केंद्र में, लेकिन काफी घटे हुए बहुमत के साथ… मुझे लगता है कि सरकार में एक ज्यादा मजबूत कैबिनेट होगी. हमारे कुछ मंत्री जो नारों और वामपंथी भाषा में बात कर रहे हैं, अभी तक यह बात नहीं समझ पाए हैं कि यह 1967 है, 1952 नहीं. आज दुनिया दूसरी भाषा में बात कर रही है…’ ‘..कांग्रेस एक ऐसी स्थिति में पहुंच गई है जहां इसे या तो क्रांतिकारी नीतियां अपनानी होंगी या विखंडित हो जाना होगा… 50 सालों के बाद हम मुड़कर उस समय को देख रहे हैं और उसका अक्स उभारने की कोशिश कर रहे हैं. लेखों की एक श्रृंखला के तहत नामचीन लेखक उन महत्वपूर्ण घटनाओं और प्रक्रियाओं को याद करेंगे जिन्होंने एक जवान, संघर्षरत मगर उम्मीदों से भरे भारत पर अपनी छाप छोड़ने का काम किया. और सिर्फ कांग्रेस ही अकेले संकट में नहीं है. देश एक ऐसे दौर से गुजर रहा है जिसमें व्यावहारिक तौर पर सभी राजनीतिक पार्टियां आंतरिक असंतोष और विखंडन से जूझ रही हैं. ये आंतरिक असंतोष और कुछ नहीं लोकतांत्रिक कामकाज को लेकर विरोधी रवैयों और एक विकासशील देश की चुनौतियों की अभिव्यक्तियां हैं. इतिहास महानता का तमगा सिर्फ एक किस्म के नेता लिए महफूज रखता है- वे जो राज-व्यवस्था को मौत के मुंह से खींचकर उसकी हिफाजत करते हैं और और उसे नया जीवन देते हैं. इतिहास उन नेताओं को मान्यता देता है जो राजनीतिक परिदृश्य का कायापलट करने के लिए रंगमंच पर कब्जा कर लेते हैं. चिंता इस बात को लेकर है कि यह रुझान लोकतांत्रिक मोर्चे के विखंडन और लोकतांत्रिक कार्यकलाप और सरकार की स्थिरता के लिए खतरा पेश करनेवाले छोटे-छोटे समूहों के निर्माण की ओर लेकर जाएगा. लेकिन, अगर राजनीतिक दलों के बीच ये आंतरिक संघर्ष और असंतोष राजनीतिक शक्तियों के ध्रुवीकरण का रास्ता तैयार करेंगे, तो यह एक स्वागतयोग्य रुझान होगा और मैं इसका स्वागत करूंगा. मैं हमारी विचारधारा में यकीन करनेवाली सभी प्रगतिशील शक्तियों को हमारे संगठन में शामिल होने होने के लिए आमंत्रित करता हूं…’ इन दोनों कामों को एक ही क्षण में अंजाम दिये जाने का काम विरले ही होता है. भारत में यह लम्हा 1971 में आया और इंदिरा गांधी इस मौके को लपकते हुए राजनीतिक सुदृढ़ीकरण और बदलाव की प्रक्रिया की कर्णधार बनीं.
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