धर्म के द्वेष को मिटाना इस वक़्त का सबसे ज़रूरी काम है…
The Wire
सदियों से एक दूसरे के पड़ोस में रहने के बावजूद हिंदू-मुसलमान एक दूसरे के धार्मिक सिद्धांतों से अपरिचित रहे हैं. प्रेमचंद ने अपने एक नाटक की भूमिका में लिखा भी है कि 'कितने खेद और लज्जा की बात है कि कई शताब्दियों से मुसलमानों के साथ रहने पर भी अभी तक हम लोग प्रायः उनके इतिहास से अनभिज्ञ हैं. हिंदू-मुस्लिम वैमनस्य का एक कारण यह है कि हम हिंदुओं को मुस्लिम महापुरुषों के सच्चरित्रों का ज्ञान नहीं.'
हजरत मोहम्मद में इधर कुछ हिंदुओं की दिलचस्पी जग गई है. यह किस किस्म की उत्सुकता है, यह भारतीय जनता पार्टी की एक पूर्व नेता के एक चर्चा में की गई टिप्पणी से जाहिर है. भाजपा और उसकी विचारधारा से जुड़े लोगों द्वारा की जाने वाली टिप्पणियों से भी पता चलता है कि ऐसी दिलचस्पी उस विचारधारा को मानने वालों में आम है. यह एक प्रकार की मानसिक विकृति है. यह आज की नहीं.
कोई 90 साल पहले आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने एक किताब लिखी: ‘इस्लाम का विष वृक्ष.’ आचार्य की लेखक के रूप में मान्यता थी. उनके प्रति सम्मान दिखलाते हुए प्रेमचंद ने अफसोस जाहिर किया कि वे अपनी ओजपूर्ण, आकर्षक और तेज शैली का दुरुपयोग ‘सनसनी के साथ देश में सांप्रदायिक द्वेष को उत्तेजित करने’ के लिए कर रहे हैं. प्रेमचंद लिखते हैं,
‘पुस्तक का नाम ही बतला रहा है कि इसकी रचना किस भाव की प्रेरणा से हुई है, और पुस्तक के कवर पर जो रंगीन चित्र दिया गया है, वह तो लेखक के विषैले मनोभाव की नंगी तस्वीर है.’
तो क्या किसी को किसी दूसरे धर्म का इतिहास लिखने का अधिकार नहीं? प्रेमचंद कहते हैं,