
इसी जगह पर भगवान शिव ने किया था विष पान, अद्भुत है मान्यता
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Neelkanth Mahadev Mandir: नीलकंठ महादेव मंदिर उत्तराखंड की सुंदर पहाड़ियों के बीच में स्थित है. ये भगवान शिव के चमत्कारी मंदिरों में से एक है. तो चलिए आज हम आपको भगवान शिव के इस मंदिर की कथा के बारे में विस्तार से बताते हैं.
Neelkanth Mahadev Mandir: आपने भगवान शिव के कई चमत्कारी मंदिरों के बारे में तो सुना ही होगा. इनमें से एक है नीलकंठ महादेव मंदिर. नीलकंठ महादेव मंदिर भारत के प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है. कहा जाता है कि भगवान शिव ने इसी स्थान पर समुद्र मंथन से निकला विष पिया था और विष के प्रभाव से उनका कंठ यानि गला नीला पड़ गया था इसलिए महादेव के इस मंदिर को नीलकंठ महादेव के नाम से जाना जाता है. श्रुति और स्मृति पुराण में भी इस मंदिर का जिक्र मिलता है. तो चलिए आज हम आपको भगवान शिव के इस मंदिर के बारे में विस्तार से बताते हैं.
नीलकंठ महादेव मंदिर ऋषिकेश से काफी ऊंचाई पर स्थित है. महादेव का यह मंदिर प्राकृतिक सुंदरता से घिरा हुआ है. नीलकंठ मंदिर उत्तराखंड की सुरम्य पहाड़ियों के बीच मधुमती और पंकजा नदी के संगम पर स्थित है. आपको बता दें कि भगवान शिव का आशीर्वाद लेने और उनके दर्शन के लिए लोग इस मंदिर में दूर-दूर से आते हैं. इसके अलावा, मंदिर के प्रांगण में एक अखंड धूनी जलती रहती है और उस धूनी की भभूत को श्रद्धालु प्रसाद के तौर पर भी लेकर जाते हैं.
क्यों पड़ा इस जगह का नाम नीलकंठ मंदिर
मंदिर के पुजारी गिरी जी के मुताबिक, एक बार देवताओं और असुरों (राक्षसों) ने अमरता का अमृत प्राप्त करने के लिए महासागर का मंथन करने का फैसला किया. उन्होंने भगवान विष्णु से मदद मांगी. जिसमें मंथन के दौरान मंदार पर्वत को मथनी के रूप में इस्तेमाल किया गया और वासुकी नाग को मंथन की रस्सी के रूप में प्रयोग किया गया था. समुद्र मंथन के दौरान कुल 14 चमत्कारी चीजें निकलीं जिसमें कामधेनु (इच्छा पूरी करने वाली गाय), उच्चैश्रवा (दिव्य सफेद घोड़ा) और देवी लक्ष्मी भी प्रकट हुईं.
जैसे-जैसे मंथन जारी रहा, समुद्र की गहराई से कालकूट नामक हलाहल विष निकला. विष इतना शक्तिशाली और खतरनाक था कि इससे पूरी सृष्टि के नष्ट होने का खतरा था. विनाशकारी परिणामों के डर से देवता और असुर भगवान शिव की सहायता लेने के लिए दौड़ पड़े. तब भगवान शिव ने संसार के कल्याण के लिए कालकूट नामक हलाहल विष को पीकर अपने कंठ में उसे धारण किया. जिससे उनका कंठ नीला पड़ गया. तभी से उन्हें नीलकंठ के नाम से जाना जाने लगा, जहां "नील" का अर्थ नीला और "कंठ" का अर्थ गला है.
जिसके बाद इस विष की ज्वलंता को शांत करने के लिए भगवान शिव ने पंकजा और मधुमति नदी के संगम के समीप मंचपणी नामक वृक्ष के नीचे समाधि लेकर 60 हजार वर्षों तक तप किया. भगवान शिव जिस वृष के नीचे समाधि लेकर बैठे थे, उसी स्थान पर आज भगवान शिव का स्वयंभू लिंग विराजमान है.

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