संविधान, लोकतांत्रिक मूल्य और हम
The Wire
सामाजिक कार्यकर्ता सचिन जैन की चार किताबें - ‘संविधान और हम’, ‘भारतीय संविधान की विकास गाथा’, ‘जीवन में संविधान’ और ‘भारत का संविधान: महत्वपूर्ण तथ्य और तर्क’ हाल ही में प्रकाशित होकर आई हैं. संविधान के निर्माण और इसके पीछे के संघर्ष के अलावा ये किताबें आज़ादी के बाद संवैधानिक मूल्यों की लड़ाई और तिल-तिल कर जी रहे वंचित और दबे हुए लोगों की दास्तान हैं.
26 जनवरी 1950 को जब एक लंबी बहस और मेहनत के बाद संविधान को अपनाया गया तो यह कल्पना की गई थी कि आने वाले वर्षों में भारत के हर नागरिक को संविधान की प्रस्तावना और मूल अधिकारों के साथ एक गरिमामयी जीवन जीने के मौके भी हासिल होंगे और सबको विकास के अवसर भी मिलेंगे.
समय बीतने के साथ-साथ जहां विकास हुआ, वहीं लोगों की मुश्किलें बढ़ी हैं, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता. दिक्कत यह है कि आज बमुश्किल देश के एक प्रतिशत लोगों के घर में संविधान की प्रति होगी, जबकि धार्मिक किताबों का भंडार हर घर में होगा. जब संविधान घर में नहीं, किसी ने देखा नहीं तो समझ कैसे विकसित होगी और कैसे हमारा लोकतंत्र बचेगा.
इधर सामाजिक नागरिक संस्थाओं ने संविधान बचाने की तगड़ी पहल की है, जिसमें विभिन्न प्रकार की संस्थाएं संविधान पर बहुत बारीकी और गहराई से काम कर रही हैं.
इस क्रम में अनेक प्रकार की सामग्री विकसित की जा रही है और दूरदराज के गांवों से लेकर शहरों और विभिन्न प्रकार के सोशल मीडिया पर लोग सक्रिय हैं और समाज के हर वर्ग के साथ संजीदा ढंग से काम हो रहा है.