
संघ के 100 साल: जब RSS के तीसरे सरसंघचालक ने संघ से ले ली थी 7 साल की छुट्टी
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डॉ हेडगेवार ने न केवल गुरु गोलवलकर में अपना उत्तराधिकारी ढूंढ लिया था बल्कि बाला साहबे देवरस में उन्हें संघ के अगली पीढ़ी का नेतृत्व नजर आ रहा था. देवरस उन बालकों में थे जो संघ के साथ सबसे पहले जुड़े थे. उनके कार्यकाल में एक ऐसा मौका आया जब उन्होंने संघ के सरसंघचालक के पद से 7 साल की छुट्टी ले ली थी. RSS के 100 सालों के सफर की 100 कहानियों की कड़ी में आज पेश है उसी घटना का वर्णन.
आमतौर पर राजनीतिक पार्टियों में ये देखने में आता रहा है कि नेताओं में आपसी मतभेद हों तो पार्टियां या तो टूट जाती हैं, या कोई नेता इस्तीफा दे देता है या ले लिया जाता है. कांग्रेस अब तक 66 बार से भी अधिक बार टूट चुकी है, लेकिन कोई भी ऐसी पहली घटना यानी कांग्रेस के 1907 के सूरत अधिवेशन को नहीं भूलता. ना ही गांधीजी से मतभेद के बाद नेताजी बोस का 1939 के त्रिपुरी अधिवेशन में अध्यक्ष पद से इस्तीफा. हालिया राजनीति में केजरीवाल के साथियों का एक एक करके छोड़ना या उन्हें निकाल देना आज की पीढ़ी ने देखा है. मंत्री पद जाने के बाद जिस तरह आर के सिंह ने बीजेपी के खिलाफ बिहार चुनाव में मोर्चा खोला, उसके चलते उनका इस्तीफा हो गया. ऐसे में सरसंघचालक जैसे सर्वोच्च पद की जिम्मेदारी लेने से पहले बाला साहब देवरस अचानक संघ से दूर चले गए तो सबका चौंकना स्वाभाविक था.
इससे पहले गुरु गोलवलकर तो बिना डॉ हेडगेवार को बताए ही स्वामी अखंडानंद जी के आश्रम में रहने चले गए थे. लेकिन हेडगेवार को अंदाजा था कि गोलवलकर विचारों के किस तूफान से गुजर रहे हैं, सो उन्होंने ना उन्हें वापस बुलाने के लिए दबाव बनाया और ना ही उन पर नाराजगी जताई, सब इंतजार करते रहे और एक दिन गुरु गोलवलकर खुद ही वापस आ गए. नाराज तो डॉ हेडगेवार बालाजी हुद्दार से भी नहीं हुए जो सरकार्यवाह जैसे दूसरी सर्वोच्च जिम्मेदारी संभालते हुए भी क्रांतिकारियों के एक जत्थे के साथ ट्रेन डकैती करने पहुंच गए. ऐसे में अंग्रेज सरकार मौका देखकर संघ के सभी नेताओं को गिरफ्तार कर सकती थी या फिर संघ पर प्रतिबंध लगा सकती थी. वो उनसे नाराज तब भी नहीं हुए जब वो लंदन जाकर कम्युनिस्टों के सहयोगी बन गए थे. डॉ हेडगेवार बड़े ही दूरदर्शी व्यक्तित्व थे, अपने रहते हुए ही ना केवल गुरु गोलवलकर जैसा प्रखर व्यक्तित्व का स्वामी अपने उत्तराधिकारी के तौर पर ढूंढ लिया था, बल्कि साथ में बाला साहब देवरस को भी अगली पीढ़ी के नेतृत्व के तौर पर ढालना शुरू कर दिया था. उसकी वजह भी थी, जिस बाल शाखा को उन्होंने सबसे पहले आरएसएस से जोड़ा था, उन बच्चों के अगुवा थे 11-12 साल के बाला साहब देवरस. जब कलकत्ता में संघ का काम शुरू करने के लिए भेजा तो उनके साथ बाला साहब देवरस को भी भेजा. मानो उन्हें हनुमान की तरह देख रहे हों. लेकिन डॉ हेडगेवार के बाद वाकई में देवरस ने हनुमान की तरह ही काम किया, चाहे वो उनके जेल जाने के वक्त संविधान तैयार करना हो, पूरे देश में स्वयंसेवकों का उत्साह बनाए रखना हो, सरकार पर दबाव बनाना हो, या उनकी गिरफ्तारी से पहले उनके घर आए हमलावरों के सामने डट कर खड़े रहना हो. ‘बाला साहब देवरस को देखोगे तो डॉ हेडगेवार दिखेंगे’
बाला साहब देवरस शुरु से ही संगठन की बारीकियों को समझ रहे थे. गुरु गोलवलकर शुरूआत में बाहरी समझे जाते थे, वो संघ की स्थापना के समय से नहीं जुड़े थे. ऐसे में गुरु गोलवलकर ने तय किया कि जैसे देवरस को पहले कलकत्ता भेजा गया था, अब प्रचारक के तौर पर कही नहीं भेजा जाएगा, बल्कि वो नागपुर में रहकर ही सारा कार्य संभालेंगे. आप उनकी महत्ता 1943 के पुणे अधिवेशन में दिए गए गुरु गोलवलकर के बयान से ही समझ सकते हैं, वर्ग में आए स्वयंसेवकों को बाला साहब से परिचय करवाते वक्त गुरु गोलवलकर ने कहा था कि, “आपमें से अनेक स्वयंसेवकों ने डॉ हेडगेवारजी को नहीं देखा होगा, श्री बाला साहब देवरस को देखो, तो आपको डॉ हेडगेवारजी दिखेंगे”.
RSS के सौ साल से जुड़ी इस विशेष सीरीज की हर कहानी
यानी गोलवलकर मानते थे कि बाला साहब उतनी ही गंभीरता से संघ के काम में जुटे रहते हैं, जैसे डॉ हेडगेवार. ये बहुत बड़ा बयान था, इससे साफ लगता है कि कहीं ना कहीं गुरु गोलवलकर को अहसास था कि हेडगेवारजी ने उनके उत्तराधिकारी के तौर पर ही बाला साहब देवरस को तैयार किया था. 1930 में जब देवरस ने संघ शिक्षा वर्ग का तीसरा साल भी पूरा कर लिया तो उनको नई जिम्मेदारी मिली, मोहित ए वाड़ा की शाखा के अलावा नागपुर की इतवारी शाखा शुरू करवाई. सामाजिक समरसता के ध्वज वाहक थे देवरस
इस शाखा के जरिए बाला साहब देवरस ने समाज की एक और समस्या को दूर करने के लिए एक बड़ा प्रयोग किया. चूंकि ये शाखा पुराने नागपुर में उनके घर के पास थी, जहां ज्यादातर मकान दलितों, पिछड़ों के थे. उसमें उन्होंने दलितों, पिछड़ों के बच्चो को जोड़ लिया. धीरे धीरे बाला साहब ने सभी परिवारों को जोड़ लिया. यूं संघ कभी जाति आधारित भेदभाव के शुरूआत से ही विरोध में था, लेकिन इस दिशा में जो काम बाला साहब देवरस ने किया, वो उदाहरण बन गया. बाद में सरसंघचालक बनने के बाद 8 मई 1974 को वसंत व्याख्यान माला के दौरान उन्होंने एक वाक्य को अपना मर्म वाक्य बनाया था, वो वाक्य था, “हमें स्वीकार करना चाहिए कि अस्पृश्यता एक भयंकर भूल है और उसका पूर्णतया उन्मूलन आवश्यक है”. जब भी संघ के सामाजिक समरसता और दलित पिछड़ों के लिए कार्यक्रमों की चर्चा होती है, बाला साहब देवरस के इस बयन की चर्चा जरुरू होती है.

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