
श्रीलंका: सिर्फ अर्थव्यवस्था ही नहीं, लोकतांत्रिक मूल्य भी गिरे हैं
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श्रीलंका गंभीर आर्थिक और राजनीतिक संकट से जूझ रहा है. श्रीलंका की अर्थव्यवस्था तो मुश्किल में है ही, देश के लोकतांत्रिक मूल्यों में भी पिछले कुछ साल में गिरावट आई है.
श्रीलंका पतन की कगार पर खड़ा है. आर्थिक उथल-पुथल और वित्तीय व्यवधानों के कारण श्रीलंका के 21 मिलियन लोगों की स्थिति लगभग अनिश्चित हो गई है. यह मनमाने नीतिगत फैसलों, आयात पर देश की अधिक निर्भरता और घटते विदेशी भंडार के कारण हुआ है. देश के पास अब ऋण पर ब्याज का भुगतान करने के लिए भी पर्याप्त धन नहीं बचा है.
यह हालात तब हैं, जब श्रीलंका का बढ़ता कर्ज 50 अरब डॉलर के आंकड़े को भी पार कर गया है. देश में ईंधन की किल्लत के कारण एंबुलेंस तक का परिचालन प्रभावित हो रहा है. प्रदर्शनकारी राष्ट्रपति भवन में बैठे हैं और राष्ट्रपति कहां है, इसका पता नहीं है. श्रीलंका में केवल आर्थिक हालात ही खराब नहीं हुए हैं, लोकतांत्रिक मूल्य भी कम होते जा रहे हैं.
संकट कैसे आया
श्रीलंका में साल 2009 में गृह युद्ध की समाप्ति हुई. गृह युद्ध की समाप्ति के बाद श्रीलंका की सरकार ने आर्थिक विकास पर ध्यान देना शुरू किया. हालांकि, साल 2018 के बाद हालात और खराब हो गए जब देश को एक बड़े संवैधानिक संकट का सामना करना पड़ा. साल 2018 के अंत में, राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरिसेना ने तत्कालीन प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे को बर्खास्त कर दिया और उनकी जगह महिंदा राजपक्षे को नियुक्त कर दिया.
श्रीलंका में प्रधानमंत्री पद पर महिंदा राजपक्षे की नियुक्ति के बाद साल 2019 में जनता को लुभाने के लिए सरकार ने व्यापक आयकर कटौती की शुरुआत की. व्यापक आयकर कटौती की वजह से सरकार को राजस्व का भारी नुकसान हुआ और नतीजा ये हुआ कि विदेशी मुद्रा भंडार में कमी आने लगा. रही-सही कसर कोरोना की महामारी ने पूरी कर दी. कोरोना महामारी की वजह से श्रीलंका का फलता-फूलता पर्यटन उद्योग ठप हो गया.
साल 2021 में सरकार की ओर से लिया गया एक और फैसला श्रीलंका के लिए आत्मघाती साबित हुआ. श्रीलंका सरकार ने रासायनिक उर्वरकों के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया. श्रीलंका की सरकार ने स्थानीय जैविक उर्वरकों के उपयोग को बढ़ावा देने का फैसला किया. नतीजा ये हुआ कृषि उत्पादन पर भी विपरीत असर पड़ा.

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