मोहन भागवत की जनसंख्या असंतुलन की चिंता में समुदाय का नाम सामने न होकर भी मौजूद है
The Wire
मोहन भागवत ने किसी समुदाय का नाम लिए बिना देश में समुदायों के बीच जनसंख्या के बढ़ते असंतुलन पर चिंता जताई. संघ शुरू से इशारों में ही बात करता रहा है. इससे वह क़ानून से बचा रहता है. साथ ही संकेत भाषा के कारण बुद्धिजीवी भी उनके बचाव में कूद पड़ते हैं, जैसे अभी पूर्व चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी कर रहे हैं.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रमुख ने विजयादशमी के पवित्र अवसर पर एक बार फिर असत्य, अर्धसत्य और कपट का सहारा लेकर हिंदुओं में दूसरे समुदायों के प्रति संदेह, घृणा और हिंसा के अशुभ भावों को उत्तेजित करने की कोशिश की है. इसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता क्योंकि संघ का प्रभाव हिंदुओं की बड़ी आबादी पर है. उसके लिए संघ प्रमुख के शब्दों का महत्त्व होना चाहिए.
अगर उनसे प्रभावित होकर दूसरे समुदायों के प्रति उनमें पहले से मौजूद विद्वेष बढ़ता है तो यह भारत के सामाजिक जीवन में तनाव और हिंसा को और बढ़ाएगा. इसी वजह से आजकल उनमें इस आबादी के बाहर भी काफ़ी उत्सुकता बढ़ गई है. मुसलमान या ईसाई भी इसे सुनते हैं क्योंकि उनके प्रति संघ किस रवैये की वकालत कर रहा है, यह जानना उनकी अपनी हिफ़ाज़त के लिए ज़रूरी है.
संघ का विचार सिर्फ़ उस तक महदूद नहीं है. एक प्रकार से अपनी राजनीतिक शाखा, भारतीय जनता पार्टी के माध्यम से संघ भारत के बड़े हिस्से पर राज कर रहा है. भारत की नौकरशाही, पुलिस पर भी उनका प्रभाव बढ़ता गया है. मीडिया उनके छोटे बड़े बयान पर ध्यान देता है.
प्रधानमंत्री भी पहले स्वयंसेवक ही हैं. यह तो अटल बिहारी वाजपेयी ने भी कहा था. उनके समय के मुक़ाबले आज संघ का प्रभाव राज्य तंत्र पर, यहां तक कि फ़ौज पर भी कहीं अधिक दिखता है. कहना गलत न होगा कि संघ की नीति ही अब राज्य की नीति है. इसलिए संघ प्रमुख जो भी कहते हैं, उस पर ध्यान देने और उसकी जांच करने की ज़रूरत बनी रहती है.