![मैं किसी से उसका मज़हब छीनना नहीं चाहता… सिर्फ़ सीने में दबी नफ़रत छीन लेना चाहता हूं](http://thewirehindi.com/wp-content/uploads/2020/06/Homeless-India-Nation-Republic-Democracy-PTI.jpg)
मैं किसी से उसका मज़हब छीनना नहीं चाहता… सिर्फ़ सीने में दबी नफ़रत छीन लेना चाहता हूं
The Wire
विभाजन या इतिहास के किसी भी कांटेदार खंडहर में फंसे जिस्मों को भूलकर, अगर सत्ताधारियों के लिबास में नज़र आने वाले सितम-ज़रीफ़ ख़ुदाओं के जाल को नहीं तोड़ा गया तो मरने वाले की ज़बान पर भी ख़ुदा का नाम होगा और मारने वाले की ज़बान पर भी ख़ुदा का नाम होगा.
मैं भारतीय नागरिक हूं. ‘अल्हम्दुलिल्लहि रब्बिल आलमीन…….. ‘तुम माज़ी (अतीत) के लिए क्यों रोते हो? ‘वो उस नफ़रत को नहीं भूलते जिसने इन तल्ख़ वाक़िआत (क्रूर घटनाओं) को जन्म दिया था. वो नफ़रत आज भी दिलों में एक नाग की तरह कुंडली मारे अपने फन को दुम में दबाए बैठी है और किसी मौक़े–किसी एक मौक़े की तलाश में है. मौक़ा पाते ही वो सदियों पुरानी नफ़रत नाग के फन की तरह उठ खड़ी होगी और पूरे बर्र-ए-सग़ीर (भारतीय उपमहाद्वीप) को डस लेगी.’ ‘मेरी मुसीबत ये है कि मैं आज बाबर को बुलाकर उससे ये नहीं कह सकता कि तुमने हिंदुस्तान पर हमला क्यों किया? मैं आज शिवाजी से ये नहीं कह सकता कि तुम औरंगज़ेब के ख़िलाफ़ बग़ावत का अलम क्यों बुलंद करते हो. मैं हिंदू से उसका वेद और मुसलमान से उसका क़ुरान नहीं छीन सकता. मैं मुसलमान को गोश्त खाने से मना नहीं कर सकता. हिंदू को धोती पहनने से रोक नहीं सकता. मैं किसी से उसका मज़हब, उसका कल्चर… छीनना नहीं चाहता. मैं सिर्फ़ वो नफ़रत छीन लेना चाहता हूं- वो जो तुम्हारे सीने में दबी पड़ी है.’
लेकिन अक्सर ‘संदिग्ध’ और कई बार ‘ग़द्दार’ बताया जाता हूं. सत श्री अकाल! हर हर महादेव! जो हो गया सो हो गया. वो बुरा और भयानक था…उसे याद करके शरीफ़ इंसानों की गर्दन शर्म से झुक जाती है. मगर अब इन बातों को क्यों दोहराते हो…आज हमारे दरमियान एक नई नस्ल पैदा हो रही है जो इन वहशियाना मज़ालिम के मलबे से बहुत ऊपर तामीर-ए-नौ (कंस्ट्रक्शन) के ख़्वाब देखती है.’ आगे कहते हैं; ‘मैं नहीं चाहता कि वो मौक़ा कभी आए. मैं इस नफ़रत को तरसा-तरसाकर भूखा मार देना चाहता हूं. क्योंकि हिंदुस्तान में एक या दो नहीं लाखों इंसान ऐसे होंगे जो पेशावर तक अखंड भारत को फैला देने का ख़्वाब देखते हैं. पाकिस्तान में ऐसे इंसानों की कमी नहीं जो दिल्ली पर हलाली परचम लहरा देने के मुतमन्नी हैं और इसके लिए लाखों की तादाद में जान देने के लिए तैयार हैं.’
भले आप मुझे न जानते हों, मुझसे न मिले हों…फिर भी मेरे नाम का इश्तिहार आपको हर तरफ़ नज़र आता है. हवा में बरछे चमके और बुड्ढ़े मुसलमान का जिस्म चार टुकड़ों में तक़्सीम हो गया.
जहां मैं ‘जिहादी’ हूं… मरने वाले की ज़बान पर आख़री नाम ख़ुदा का नाम था और मारने वाले की ज़बान पर ख़ुदा का नाम था. और अगर मरने और मारने वालों के ऊपर, बहुत दूर ऊपर, कोई ख़ुदा था तो बिला-शुबा बेहद सितम-ज़रीफ़ था!’