फेल होने पर खुदकुशी? ये तो नहीं हैं 'रिजल्ट' के मायने, पेरेंट्स भी सोचकर देखें
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पेरेंटिंंग को लेकर घंटोें के लेक्टर, सैकड़ों टिप्स बेकार हैं, अगर आपके आसपास अभी भी रिजल्ट के मायने नहीं बदले हैं. अभी भी रिजल्ट खराब होने पर खुदकुशी की घटनाएं नहीं रुकी हैं. एक समाज के तौर पर, एक पेरेंट्स के तौर पर यह सोचने का वक्त है कि आखिर क्यों एजुकेशन सिस्टम का कोई हिस्सा मौत की वजह बन रहा. पेरेंट्स होकर हम कैसे हैं?
ये रिजल्ट का मौसम है. रिजल्ट यानी एजुकेशन सिस्टम का एक हिस्सा जिसमें परीक्षाओं के बाद उसका परिणाम दिया जाता है. रिजल्ट किसी के लिए खुशी तो कहीं उदासी लेकर आता है. लंबे समय से एक बात कही जा रही है कि रिजल्ट को इतना बड़ा हौव्वा मत बनाइए, ये बस एक तरीका है जिससे प्रेरित होकर बच्चे सीखने पर ध्यान दें. फिर भी यूपी बोर्ड 10वीं 12वीं के रिजल्ट के बाद ऐसी दो घटनाएं सामने आई हैं जिसमें छात्रों ने आत्महत्या कर ली. यह सोचने का समय है कि आखिर कैसे समाज में रिजल्ट को लेकर पेरेंट्स और बच्चों की मानसिकता में बदलाव लाया जाए.
दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक व शिक्षाविद डॉ हंसराज सुमन कहते हैं कि नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के बाद रिजल्ट के मायने बहुत बदल गए हैं. अब रिजल्ट उतना प्रभावी नहीं रह गया है जितना पहले था. पहले 12वीं के रिजल्ट का असर स्नातक दाखिले पर पड़ता था. लेकिन अब शिक्षा नीति आने के बाद यूनिवर्सिटीज दाखिले का सिस्टम सीयूईटी यानी कॉमन यूनिवर्सिटी एडमिशन टेस्ट पर आधारित हो गया है. दिल्ली विश्वविद्यालय समेत देश की टॉप यूनिवर्सिटीज में इसी टेस्ट के जरिये दाखिले मिलेंगे.
अब सवाल यह है कि आखिर क्यों रिजल्ट को इस कदर व्यक्ति की योग्यता की पहचान, परिवार के स्वाभिमान के साथ जोड़ा जाता है. पेरेंट्स को रिजल्ट के प्रभाव को कम करने के लिए न सिर्फ खुद को बल्कि अपने बच्चे को भी तैयार करना होगा. आप सोचकर देखिए आपका बच्चा रिजल्ट खराब होने पर खुदकुशी पर मजबूर हो जाए. इहबास दिल्ली के वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉ ओमप्रकाश कहते हैं कि आज के दौर में प्रतिस्पर्धा का स्तर बहुत ऊपर पहुंच गया है. आज जब संयुक्त परिवारों या मुहल्ला कल्चर में कमी आई है, इसके बावजूद शहरों में एकल परिवारों के तौर पर रह रहे माता-पिता भी इस प्रतिस्पर्धा से नहीं बच पा रहे हैं. अब मुहल्ला कल्चर की जगह सोशल मीडिया ने ले ली है.
सोशल मीडिया प्लेटफार्म मुहल्ला कल्चर से कहीं ज्यादा खतरनाक है. यहां लोगों की अभिव्यक्ति उनके कंट्रोल में है. वो इस प्लेटफॉर्म पर सिर्फ अपने जीवन के सुखद अनुभूतियां ही साझा करते हैं. जबकि संयुक्त परिवार संस्कृति में संवाद में ज्यादा पारदर्शिता थी. अब सोशल मीडिया में जब हर तरफ लोग अच्छी अच्छी बातें शेयर कर रहे हों और किसी के बच्चे का रिजल्ट अच्छा नहीं गया तो मां बाप के मन पर इसका दुष्प्रभाव पड़ता है. यह दुष्प्रभाव उनके मन में एक कुंठा को जन्म देता है. यही कुंठा बच्चों पर प्रतिक्रिया के तौर पर निकल जाती है.
पेरेंट्स के तौर पर खुद से ये 3 सवाल पूछें
1: बच्चे को सबसे सर्वश्रेष्ठ होने की उम्मीद करते हैं? बच्चे ने जब जन्म लिया तो आपने जरूर यही सोचा होगा कि आपके बच्चे की सेहत अच्छी रहे. आपका बच्चा खुश रहे. साल बीतते बीतते आप उसके पैरों पर चलने का इंतजार करते हैं. पैरों पर चलने लगा तो आपको इंतजार होता है उसे स्कूल भेजने का. लेकिन अचानक आपके मन में बच्चे से हर कदम पर "एक्सीलेंट" प्रदर्शन की उम्मीद कहां से आ गई. अगर आप उसे हर कदम पर सबसे आगे देखना चाहते हैं, आप उसे हर परीक्षा में टॉप होते देखना चाहते हैं तो ठहरिए, अपने बच्चे से क्या आप बिना शर्त बिना चाहत या बिना स्वार्थ के प्यार नहीं कर सकते. आपका प्यार पाने के लिए क्या उसे हर कदम पर खुद को सर्वश्रेष्ठ साबित करने की जरूरत है. अगर ऐसा है तो आपको अपनी पेरेंटिंग बदलने की जरूरत है न कि बच्चे पर प्रेशर डालने की.

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