
पनामा और ग्रीनलैंड के बाद अब यूक्रेन के परमाणु प्लांट, क्यों ट्रंप ने दिया उनपर अमेरिकी कंट्रोल का प्रस्ताव?
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डोनाल्ड ट्रंप ने हाल में कह दिया कि यूक्रेनी नागरिकों को सबसे बेहतर सुरक्षा तभी मिलेगी, जब वहां के न्यूक्लियर प्लांट अमेरिका के पास आ जाएं. वाइट हाउस आने के बाद से ट्रंप कभी पनामा तो कभी ग्रीनलैंड कब्जाने की बात करते रहे, इस कड़ी में अब यूक्रेन के परमाणु प्लांट भी जुड़ गए. सोवियत संघ के अलग होने के बाद कीव के पास दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा न्यूक्लियर आर्सेनल था.
अमेरिका में सत्ता पलट के साथ रूस-यूक्रेन युद्ध को लेकर उम्मीद बंधी थी. राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप लगातार जंग रोकने पर बयान दे रहे थे. हालांकि ये तय हो चुका कि इसमें नेगोशिएशन में रूस का पलड़ा भारी रहेगा. अब ट्रंप ने यूक्रेन में मौजूद न्यूक्लियर प्लांट्स पर मालिकाना हक पाने की भी कोशिश शुरू कर दी है. नब्बे के दशक में यूक्रेन अगर अपने हथियार सरेंडर न करता तो दुनिया की तीसरी बड़ी परमाणु ताकत हो सकता था.
रूस और यूक्रेन में मध्यस्थता करते हुए हाल में ट्रंप ने यूक्रेनी राष्ट्रपति वोलोडिमिर जेलेंस्की से बात की और इसी दौरान एक बेहद अजीब सा आइडिया दिया. उन्होंने कहा कि यूएस अगर वहां बने न्यूक्लियर प्लांट्स को टेकओवर कर ले तो इससे यूक्रेन के ऊर्जा इंफ्रास्ट्रक्चर को ज्यादा फायदा हो सकेगा. एकदम अचानक आए इस प्रस्ताव को जेलेंस्की ठुकरा चुके. न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, प्लांट देश के हैं और उनका निजीकरण नहीं हो सकता, यही कहते हुए जेलेंस्की ने फिलहाल इस प्रस्ताव से इनकार कर दिया.
यूक्रेन में स्थित जापोरिझिझिया न्यूक्लियर प्लांट पर लड़ाई शुरू होने के बाद से रूस का कब्जा है. जेलेंस्की ने यह इशारा भी दिया कि ट्रंप शायद इसी की बात कर रहे हों. अगर ऐसा है तो यूक्रेन का उससे खास लेना-देना नहीं होगा. बात चाहे जो हो, ये पक्का है कि अमेरिका की यूक्रेन में, खासकर उसके परमाणु प्लांट्स में खासी दिलचस्पी है. यूक्रेन को साल 1991 में सोवियत संघ के टूटने के बाद दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा न्यूक्लियर आर्सेनल विरासत में मिला था. अमेरिका और रूस के बाद वो टॉप पर था, हालांकि उसे सारे हथियार सरेंडर करने पड़े.
क्या यूक्रेन को मजबूर किया गया था तकनीकी रूप से हां. दरअसल, कीव के पास हथियार तो थे, लेकिन सभी सोवियत यूनियन के बनाए हुए थे. इनका लॉन्च कोड और कंट्रोल सिस्टम मॉस्को के पास था. यानी यूक्रेन के पास वेपन थे तो लेकिन वो चाहने पर भी उन्हें अपनी मर्जी से ऑपरेट नहीं कर सकता था. यह वैसा ही था जैसे किसी के पास गाड़ी तो हो, लेकिन चाबी किसी और के पास.
इन हथियारों की मेंटेनेंस बेहद महंगी थी. बता दें कि न्यूक्लियर वेपन्स को संभालने और सुरक्षित रखने के लिए बड़े पैमाने पर रिसोर्स की जरूरत होती है. बाकी दोनों देशों के पास पैसे से लेकर साइंटिस्ट्स की टीम थी लेकिन यूक्रेन के पास ये नहीं था. जो टेक्निकल इंफ्रास्ट्रक्चर था भी, वो कमजोर हाल था.

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