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द कश्मीर फाइल्स का सिर्फ एक ही सच है, और वो है मुस्लिमों से नफ़रत

द कश्मीर फाइल्स का सिर्फ एक ही सच है, और वो है मुस्लिमों से नफ़रत

The Wire
Sunday, April 03, 2022 01:42:56 AM UTC

लोग ये बहस कर सकते हैं कि फिल्म में दिखाई गई घटनाएं असल में हुई थीं और कुछ हद तक वे सही भी होंगे. लेकिन किसी भी घटना के बारे में पूरा सच, बिना कुछ भी घटाए, जोड़े और बिना कुछ भी बदले ही कहा जा सकता है. सच कहने के लिए न केवल संदर्भ चाहिए, बल्कि प्रसंग और परिस्थिति बताया जाना भी ज़रूरी है.

‘जब सच कहने के पीछे की नीयत ख़राब हो, तो वो हर झूठ से ज़्यादा ख़तरनाक़ होता है‘ कृष्णा पंडित (दर्शन कुमार) एक नौजवान है, जो एक विश्वविद्यालय के अध्यक्ष पद के लिए चुनाव लड़ रहा है (ये यूनिवर्सिटी और चुनाव निस्संदेह जेएनयू की नकल पर है). प्रोफेसर राधिका मेनन (पल्लवी जोशी), उसकी मेंटर हैं. वो एक कश्मीरी पंडित है और इसलिए सत्ताधारी दल के नैरेटिव को ध्वस्त करने के लिए आदर्श व्यक्ति है. (हालांकि मुझे ये नहीं पता कि कश्मीर, जेएनयू में चुनाव का मुद्दा कैसे है, फिर भी…)

-विलियम ब्लेक कृष्णा के दादा, पुष्कर नाथ पंडित (अनुपम खेर) डिमेंशिया से पीड़ित एक विस्थापित कश्मीरी पंडित हैं, जिनका देहांत हो जाता है. वह उनकी अंतिम इच्छा को पूरी करने के लिए कश्मीर जाता है कि उनकी पार्थिव देह की राख को उनके पुरखों के घर में छिड़का जाए. कश्मीर पहुंचकर उसकी मुलाक़ात पांच लोगों से होती है, जो कि उसका इंतज़ार कर रहे होते हैं. ब्रह्मदत्त (मिथुन चक्रवर्ती) – एक पूर्व भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी और उनकी पत्नी लक्ष्मी दत्त (मृणाल कुलकर्णी), डॉ. महेश कुमार (प्रकाश बेलवाड़ी), जो अमेरिका में रह रहे एक डॉक्टर हैं. एक रिटायर्ड अफ़सर डीजीपी हरि नारायण (पुनीत इस्सर) और एक पत्रकार विष्णु राम (अतुल श्रीवास्तव). ये सभी अपने जीवन के सातवें दशक में हैं, बुज़ुर्ग हैं, थके और कड़वे हो चुके हैं.

हम सबने, ‘सच, पूरा सच और सच के सिवा कुछ नहीं’ का जुमला अक्सर सुना होगा. लेकिन कितने लोग हैं, जो इसे समझते हैं? इसका मतलब होता है कि सच को पूरी असलियत के साथ ऐसा कहा जाए कि उसमें कुछ भी जोड़ा-घटाया या बदला न जाए. सच्चाई को समझने के लिए केवल प्रसंग काफ़ी नहीं है, बल्कि संदर्भ और परिस्थितियां समझनी भी ज़रूरी हैं. ये सभी लोग, कृष्णा के दादा के जानने वाले हैं और उनके अतीत की जानकारी रखते हैं. उसे अपने पिता, मां अपने बड़े भाई की मुजाहिदीनों द्वारा भीषण नृशंस हत्या के बारे में कुछ भी पता नहीं है. उसको राधिका मेनन द्वारा इस हद तक ब्रेनवॉश कर दिया गया है कि वह तथ्यों को स्वीकार ही नहीं कर पा रहा है. लेकिन धीरे-धीरे वह अपने परिवार के बारे में सच जानने लगता है. अंत तक आते-आते वह एक अलग ही शख़्स बन जाता है.

इस बिनाह पर देखें तो, कश्मीर फाइल्स असफल हो जाती है. दरअसल, ये फिल्म सच्चाई से छेड़खानी करती है, सच के चुनिंदा हिस्से और किस्से उठाती है और सच को चालाक भावुकता के साथ पेश करती है. नतीजतन, फिल्म सिर्फ और सिर्फ नफ़रत और ज़हर का पुलिंदा बनकर रह जाती है. जब वह अपने विश्वविद्यालय वापस लौटता है, वह एक भाषण देता है, जिसमें वह पूरी तरह से, सार्वजनिक रूप से राधिका मेनन को ध्वस्त कर देता है. उसका ओजस्वी भाषण सुनने वालों को हैरान और शर्मिंदा छोड़ देता है.

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