छठ हो, करवाचौथ हो या तीज... क्यों और कैसे हमारे त्योहारों में महिलाएं ही मुख्य किरदार बन गईं!
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पति और पुत्र को धन अर्जन के लिए भेज स्त्री उसकी सुरक्षा के लिए चिंतातुर रही. वह अपने बेटे, पति और प्रियतम के लिए देव के सामने ही जाती थी. यह उसकी विश्वास का हिस्सा था. इसका पालन कर उसे आत्मिक संतुष्टि होती थी. उसे लगता था उसने अपनी फरियाद एक ऐसी शक्तिशाली सत्ता के सामने रखी है जो पूरी कायनात चलाता है. इसके बाद के परिणाम के लिए वो स्त्री तैयार थी.
यह सच है कि सभ्यता के विकसित होने का घटनाक्रम ऐसा रहा है कि त्योहारों का जिम्मा स्त्रियों के ही हिस्से आया. नवरात्र, छठ, करवाचौथ, तीज, एकादशी और कई सारे व्रत-विधान और रीतियां महिलाएं ही करती रही हैं और आज भी कर रही हैं. पर्व और व्रत में स्वयं शारीरिक कष्ट सहते हुए देव को प्रसन्न करने जो पॉपुलर कॉन्सेप्ट है उसका जिम्मा महिलाओं को ही उठाना पड़ा है. लेकिन ऐसा क्यों हुआ इस पर विचार करना जरूरी है. कहानी सैकड़ों साल पीछे से शुरू होती है. जब मनुष्य स्थायी बस्तियों में रहना शुरू कर चुका था. व्यापार का प्रांरभ हो चुका था.
भारतीय उपमहाद्वीप में तब आम आदमी के लिए जीविकोपार्जन का तीन मुख्य जरिया था- कृषि, वाणिज्य और सैनिकों का पेशा. घर गृहस्थी चलाने के लिए लोग खेती करते थे या जानवर पालते थे. जिंदगी बसर करने के लिए दूसरा जरिया था वाणिज्य-व्यापार. भारत मसालों, सिल्क, मलमल, सोना, कीमती पत्थर, हाथी के दांत, कृषि उपज, और मणि माणिक्य के व्यापार में अग्रणी था.
जैसे-जैसे सभ्यताएं विकसित हुई,संसाधनों पर कब्जे के लिए दो नगरों के बीच टकराव शुरु हुआ. लिहाजा सुरक्षा की आवश्यकता महसूस हुई. इसी परिस्थिति में भारत में मार्शल रेस का विकास हुआ. ये वो आबादी थी जो स्टेट को अपनी सेवा देती थी और नगर/राज्य की ओर से लड़ने जाती थी. इस पेशे में जान का खतरा था लेकिन इस खतरे के साथ रुतबा और आमदनी भी अटैच था. इसलिए दमदार, दिलेर और बहादुर युवा इस पेशे में आ गए और ये जीवन-यापन का अच्छा जरिया साबित हुआ.
भारत में सर्विस सेक्टर तो 30-40 साल पहले की चीज है. प्राचीन और मध्य भारत में सर्विस इंडस्ट्री के नाम पर ज्योतिष, चिकित्सा, वैध, कर्मकांड, पांडित्य, पुजारी, साहूकार, जैसे कुछ पेशे थे. लेकिन इस फील्ड में टिकने के लिए विशेष योग्यता की जरूरत थी. इसलिए इन क्षेत्रों में कुछ खास लोग ही काम कर पाते थे.
कृषि, व्यापार और सैन्य सेवा ये तीन ऐसे कोस थे जिनमें पुरुषों की भागीदारी मुख्य थी. ऐसा इसलिए भी था क्योंकि खेती-बारी को कुछ हद तक छोड़ दें तो बाकी के दोनों कामों में सुरक्षा अहम सवाल था.
ये कहानी तब की है जब परिवार नाम की संस्था वजूद में आ चुकी थी. पुरुष घर से रोजी-रोटी कमाने निकले तो स्त्रियां और बच्चे घर में अकेले रह गए. वर्षा, बाढ़, तूफान, सूखा, नदी, सागर, महासागर, पर्वत, मरुस्थल, आग तब प्रकृति का कोई राज न मनुष्य समझता न ही इन पर उसका नियंत्रण था.
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