
Retro Review: एक ऐसी फिल्म जिसने 'वंदे मातरम्' से भरा राष्ट्रवाद का जोश, संन्यासी विद्रोह की कहानी लेकर आई थी 'आनंद मठ'
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रेट्रो रिव्यू सीरीज के तहत इस बार हम 1952 में रिलीज हुई फिल्म 'आनंद मठ' पर नजर डालते हैं. जिसमें संन्यासी और देशभक्त मिलकर अंग्रेजों से लड़ते हैं, और यह फिल्म देशभक्ति, त्याग और 'वंदे मातरम' गीत के माध्यम से राष्ट्रीय भावना को दर्शाती है.
रेट्रो रिव्यू सीरीज के तहत इस बार हम 1952 में रिलीज हुई फिल्म 'आनंद मठ' पर नजर डालते हैं. एक ऐसी फिल्म जो अंग्रेजों के अत्याचारों के बीच पनपे 'संन्यासी विद्रोह' पर आधारित है. फिल्म: आनंद मठ (1952) कलाकार: पृथ्वीराज कपूर, गीता बाली, प्रदीप कुमार, भारत भूषण, अजीत डायरेक्टर: हेमेन गुप्ता म्यूजिक: हेमंत कुमार कहां देखें: YouTube कहानी: इतिहास को संदर्भ परिभाषित करती है और राजनीति सिनेमा को आकार देती है.
1952 में बनी फिल्म आनंद मठ बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय के प्रसिद्ध उपन्यास पर आधारित है. यह हमें दिखाती है कि भारत की आजादी के तुरंत बाद स्वतंत्रता और पहचान को लेकर देश के शुरुआती विचार कैसे थे. जिसमें औपनिवेशिक शासन की अस्पष्टता, राष्ट्रवादी जोश और सिनेमाई बदलाव सब शामिल थे. आनंद मठ को समझने के लिए सबसे पहले इसके राइटर और उनके द्वारा खोजे गए जटिल विचारों को समझना जरूरी है.
राइटर की कहानी फेमस लेखक बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय आज भी एक रहस्य बने हुए हैं. वह ब्रिटिश राज में एक सरकारी अधिकारी थे, लेकिन फिर भी उन्होंने आनंद मठ जैसा उपनिवेश-विरोधी उपन्यास लिखा. एक तरफ वह उच्च पद, सम्मान और 'राय बहादुर' तथा CIE (Companion of the Order of the Indian Empire) जैसे पुरस्कार पाते रहे और दूसरी तरफ ऐसी रचनाएं करते रहे जो क्रांतिकारियों को प्रेरित करती थीं. यह विरोधाभास दिखाता है कि औपनिवेशिक शासन के तहत बुद्धिजीवियों के लिए तालमेल बिठाना कितना मुश्किल था.
चट्टोपाध्याय ने अपनी चतुराई से इस टकराव को साधा. उन्होंने अपने उपन्यास (1882) की कहानी अपने समय के ब्रिटिश राज के बजाय, 1770 के दशक के संन्यासी विद्रोह के समय में रखी. यह विद्रोह मुस्लिम नवाबों और ईस्ट इंडिया कंपनी दोनों के खिलाफ था. इस ऐतिहासिक बदलाव ने उन्हें अपनी रचना पर किसी भी कानूनी कार्रवाई से बचने का बहाना दे दिया.
उपन्यास का अंत भी समझदारी भरा है. एक गुरु अपने अनुयायियों (संतानों) से कहता है कि उन्हें अपना मिशन रोक देना चाहिए क्योंकि भारत अभी आजादी के लिए तैयार नहीं है. उनका मानना है कि पहले ब्रिटिश प्रभाव में देश को विकसित होना होगा, तभी स्वराज (अपना शासन) सार्थक होगा. इस अस्पष्ट अंत ने संभवतः चट्टोपाध्याय को subversive (सत्ता विरोधी) साहित्य लिखते हुए भी अपनी सरकारी नौकरी बचाए रखने में मदद की.उपन्यास तीन मुख्य टकरावों पर जोर देता है: 1. हिंदू क्रांतिकारी बनाम मुस्लिम शासक 2. राष्ट्रवाद बनाम उपनिवेशवाद 3. संन्यास (त्याग) बनाम सांसारिक जीवन (गृहस्थ आश्रम)
यह कहानी 1770 के बंगाल के भयानक अकाल के समय की है. समाज को अराजक डाकुओं में बदलते दिखाया गया है. इस दुख का कारण बंगाल के नवाब मीर जाफर को बताया गया है. ब्रिटिशों को यहां सिर्फ क्रूर टैक्स कलेक्टर के रूप में दिखाया गया है जो लोगों के दुख की परवाह नहीं करते.













