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Chhello Show Review: जानें- कैसी है ऑस्कर के लिए भारत की ऑफिशियल एंट्री वाली फिल्म
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छेलो शो गुजरात के एक छोटे से गांव चलाला में रहने वाले नौ साल के बच्चे समय (भाविन रबारी) की कहानी है. सिनेमा लवर्स को यह फिल्म जरूर देखनी चाहिए. एक स्टडी के तौर पर भी ऐसी फिल्में याद रखी जाएगी. तंगहाली में भी एक बच्चे का फिल्म के प्रति जुनूनियत और पैशन इसे बाकी फिल्मों से अलग करती है.
Chhello Show Review: हमारे देश में ऐसे कई तमाम इंडीपेंडेंट फिल्म मेकर्स हैं, जिन्होंने सिनेमा के प्रति अपने प्यार को स्क्रीन पर उतारा है. चाहे वो रीजनल हो या ग्लोबल, लेकिन शायद ही ऐसी फिल्में होंगी, जो पैन इंडिया तक पहुंच पाती हो. पान नलिन की फिल्म छेलो शो की बात करें, अगर इसके ऑस्कर नॉमिनेशन का जिक्र नहीं होता, तो शायद ही मास इंडिया को इस फिल्म का पता चला पाता. खैर, फिल्म को देश की तरफ से ऑस्कर के ऑफिसियल नॉमिनेशन में भेजा गया है. सिनेमा के प्रति प्यार एक यूनिवर्सल इमोशन है, शायद यही वजह रही होगी कि तमाम इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल्स में इस गुजराती रीजनल फिल्म को जबरदस्त प्यार व सम्मान मिला है. हालांकि इंडियन फिल्म सेटअप पर कितनी खरी उतरती है, इसे जानने के लिए पढ़ें ये रिव्यू.
कहानी छेलो शो गुजरात के एक छोटे से गांव चलाला में रहने वाले नौ साल के बच्चे समय (भाविन राबरी) की कहानी है. फिल्म का बैकड्रॉप उस वक्त का है, जब प्रॉजेक्टर के जरिए फिल्मों को थिएटर पर दिखाया जाता था. स्टेशन के किनारे बसे एक चाय के दुकानदार दीपेन रावल का बेटा, जिसे बचपन से आइडियल बॉय बनने पर जोर दिया जाता है ताकि पढ़-लिखकर वो घर के हालात बदल सके. हालांकि उसके सपने अलग हैं, क्योंकि वो खुद अलग है. आइडियल बॉय की कैटिगरी में मिस फिट समय को फिल्मों से प्यार है. अपने दोस्तों संग छुपकर फिल्में देखने जाता है. बिना टिकट के फिल्म देख रहे सयम को जब थिएटर से बाहर निकाला जाता है, तो उसे साथ मिलता है, सिनेमा प्रॉजेक्टर चलाने वाले टेक्निशियन फजल (भावेश श्रीमाली) का.
रिश्वत के रूप में फजल को खाने का लालच देकर समय थिएटर के प्रॉजेक्शन बूथ में एंट्री कर लेता है. यहां से शुरू होती है समय और फजल की एक अनोखी बॉन्डिंग. समय रोजाना खाना लाता और फजल उसे फिल्में दिखाता. समय छिपकर सिनेमा की जादूई दुनिया में खो जाता है. हालांकि फजल से सीखी चीजों से समय अपनी गैंग संग मिलकर टूटी साइकिल, परदे, बल्ब, मिरर जैसी कई चीजों का इस्तेमाल कर अपनी दुनिया वाली थिएटर बनाने की कोशिश में लग जाता है. दोस्तों संग समय के खुराफाती दिमाग की उपज उसकी अपनी सिनेमाई गैलेक्सी पिता को हैरान कर देती है. समय को उस दिन धक्का लगता है, जब थिएटर में टेक्नोलॉजी के आ जाने के बाद फजल को नौकरी से निकाल दिया जाता है. उसके बाद कहानी एक ऐसा मोड़ लेती है, जिसे देखकर आप अपने इमोशन पर काबू नहीं रख पाते हैं.
डायरेक्शन डायरेक्टर पान नलिन के लिए हर मायने से यह फिल्म स्पेशल है. दरअसल, उन्होंने अपने बचपन की कहानी को सिल्वर स्क्रीन पर उकेरने की कोशिश की है. फिल्म की हर एक डिटेलिंग इस बात की गवाह है कि उन्होंने हर एक फ्रेम को अपने इमोशन से सराबोर होकर शूट किया है. सिंगल थिएटर कल्चर, सिनेमा का इंपैक्ट, क्लास व स्टेटस डिफरेंस, आदि कई टॉपिक्स को नलिन ने एक धागे में पिरोकर इस फिल्म को तैयार किया है. फिल्म के कई ऐसे सीन्स हैं, जो आपको झकझोरते हैं.
फजल के किरदार द्वारा बोला गया डायलॉग 'मेरी समझ से तो दो ही क्लास हैं, एक हिंदी बोलने वाला और दूसरा इंग्लिश बोलने वाला', ये दर्शाता है कि हर किसी के प्रॉब्लम्स कितने सब्जेक्टिव हैं. फजल का सूफिज्म से लगाव लेकिन परिवार की जिम्मेदारियों के बीच फंसे इस प्रोजेक्टर टेक्निशियन के सपनों के साथ समझौते से कई दर्शक खुद को रिलेट कर पाते हैं. वहीं बा यानी के मां (ऋचा मीना) का खाना बनाने के तरीके की डिटेलिंग भी कमाल की रही है. इसके साथ ही फिल्मों की रील्स को काटकर बनें चश्में या DIY के क्रिएटिव प्रॉसेस को भी आप इग्नोर नहीं कर पाते हैं.
फिल्म की आखिरी के पंद्रह मिनट में, आप अपने आंसूओं को रोक नहीं पाते हैं. प्रोजेक्टर्स के दौरान इस्तेमाल किए आइकॉनिक फिल्मों की रील्स को फैक्ट्री के मशीन में टूटकर पिघलते हुए प्लास्टिक में बदलता देखना, सिनेमा लवर्स के सपनों व भ्रम का टूटना सा प्रतीत होता है. उन रील्स की असलियत जानकर वाकई बहुत आघात पहुंचता है. रंग-बिरंगे प्लास्टिक में तब्दील हुए ये रील्स की डेस्टिनी महिलाओं की चूड़ियों तक आकर सिमट जाती है. शायद यही वजह से जब ये सीन पर्दे पर आता है, तो कोई डायलॉगबाजी या लेक्चर नहीं होता है बल्कि होता है सन्नाटा. बच्चे (समय) के इल्यूशन (illusion) के टूटने की चीख उस सन्नाटे पर साफ तौर से सुनाई पड़ती है. मशीन के शोर के बीच भी आप उस अनकही चीख को इग्नोर नहीं कर पाते हैं. इस हकीकत को देखकर एक छोटे बच्चे के टूटते सपने और उनपर उसका मैच्योर तरीके से रिएक्ट करना आपका दिल तोड़ता है. हालांकि खत्म होते होते फिल्म आपको एक उम्मीद भी दे जाती है. जब ट्रेन पर चढ़ते हुए अपनों को अलविदा कर भाविन लेडिस कंपार्टमेंट में मुड़ता है और चूड़ियों और उसके रंगों को देखकर उनकी तुलना वो हिंदी फिल्मों के डायरेक्टर्स के नाम लेकर करता है, वो सीन काफी कुछ कह जाता है. मसलन रंगीन चूड़ियां मनमोहन देसाई की फिल्मों की तरह रंगीन होती हैं, वहीं सफेद चूड़ियों को देखकर गुरूदत्त की फिल्में याद आती हैं.