
बीजेपी बनाम ममता: बंगाल में कौन जीतेगा जातियों को साधने का गेम?
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पश्चिम बंगाल की राजनीति को लंबे अर्से तक जिस बात ने अन्य राज्यों से अलग किया, वो है ‘क्लास फैक्टर’ न कि ‘कास्ट फैक्टर’. लेफ्ट जिसने पूरे 34 साल राज्य पर शासन किया, उसने ‘क्लास’ के आधार पर वोटरों को संगठित किया. यानि कि अमीर और गरीब. अन्य राज्यों के विपरीत इसने पश्चिम बंगाल में सुनिश्चित किया कि वोटर अपना वोट पार्टी के आधार पर दें न कि जातिगत वफादारियों के आधार पर.
पश्चिम बंगाल की राजनीति को लंबे अर्से तक जिस बात ने अन्य राज्यों से अलग किया, वो है ‘क्लास फैक्टर’ न कि ‘कास्ट फैक्टर’. लेफ्ट जिसने पूरे 34 साल राज्य पर शासन किया, उसने ‘क्लास’ के आधार पर वोटरों को संगठित किया. यानि कि अमीर और गरीब. अन्य राज्यों के विपरीत इसने पश्चिम बंगाल में सुनिश्चित किया कि वोटर अपना वोट पार्टी के आधार पर दें न कि जातिगत वफादारियों के आधार पर. 2011 में ये स्थिति बदल गई जब ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस ने बड़ी जीत हासिल की और लेफ्ट चिथड़े चिथड़े हो गया. उस चुनाव ने मतुआ समुदाय का वोट बैंक के तौर पर उदय भी देखा. दक्षिण बंगाल के कुछ जिलों में इस समुदाय के लोगों की खासी तादाद है. इस समुदाय ने ममता का समर्थन किया जिससे तृणमूल को स्वीप करने में मदद मिली. बंगाल में पिछड़ी जाति ‘नामशुद्रों’ की नुमाइंदगी करने वाले मतुआ महासंघ ने राजनीतिक तौर पर अपनी अहमियत दिखाई और कुछ हद तक राज्य के जातिगत समीकरणों को बदल डाला.
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